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गीतिका - प्रियदर्शिनी पुष्पा

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सभी गर खाक में मिलते रहे हैं,
खुदा के चाक भी चलते रहे हैं।

कभी इंसां कभी हैवां सरीखे,
अनोखे जीव वो गढ़ते रहे हैं।
अड़ा है यक्ष का वह प्रश्न अब भी,
तभी क्यों मौत से डरते रहे हैं।।

दिखावे के लपेटे में यहाँ सब,
चलन के चाल में ढलते रहे हैं।


पहनकर खानदानी कुतरनों को,
रईसी शौक भी पलते रहे हैं।।

सहर से शाम तक बेआबरू हो,
घरों का नूर वो छलते रहे हैं।


मुकद्दर पुष्प का बस इक यहाँ पर,
खुशी बिखरा स्वयं झरते रहे हैं।
- प्रियदर्शिनी पुष्पा, जमशेदपुर
 

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