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क्या आप जानते है पहली बार कब रखा गया था सावन सोमवार का व्रत? 3 मिनट के इस शानदार वीडियो में जानें इसकी पौराणिक कथा

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सावन माह शिव भक्ति के लिए सबसे शुभ समय माना जाता है और इस माह के प्रत्येक सोमवार को किया जाने वाला व्रत शिव कृपा का एक अनमोल साधन है। क्या आपने कभी सोचा है कि इस व्रत की शुरुआत कब और किसने की? आइए पौराणिक कथाओं में उतरकर इसके स्रोत और महत्व को जानें।

देवी पार्वती की तपस्या: व्रत की मूल कथा

ऐसा माना जाता है कि पहला सावन सोमवार व्रत स्वयं देवी पार्वती ने रखा था। वे भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए कठोर तपस्या में लीन थीं। नारद मुनि ने उन्हें मार्ग दिखाया और सावन माह के प्रत्येक सोमवार को व्रत, एकाग्र ध्यान और शिवलिंग पर जलाभिषेक करने का विधान बताया। माता पार्वती ने नियमानुसार सभी सोमवार को व्रत रखा और उनके अटूट संकल्प से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अपने वर के रूप में स्वीकार किया। यही कारण है कि यह व्रत आज भी अविवाहित कन्याओं के लिए अत्यंत फलदायी माना जाता है; इस व्रत को श्रद्धापूर्वक करने से सुयोग्य जीवनसाथी की प्राप्ति होती है।

चंद्रदेव की कथा: संकट मोचक व्रत

चंद्रदेव से जुड़ी एक और प्रचलित कथा है। कहा जाता है कि किसी प्रसंग में चंद्रमा ने भगवान शिव का अनादर किया था, जिसके परिणामस्वरूप भगवान शिव ने उन्हें श्राप दिया था कि उनका तेज क्षीण हो जाएगा। व्याकुल चंद्रदेव ने सावन माह के सोमवार को व्रत रखा और शिवलिंग का गंगाजल व दूध से अभिषेक किया। उनकी भक्ति देखकर भगवान शिव का हृदय द्रवित हो गया और उन्होंने चंद्रदेव को श्राप से मुक्त कर दिया। तभी से यह व्रत रोग-शोक निवारण, मानसिक शांति और कष्टों से मुक्ति का भी उपाय माना जाता है।

व्रत का शाश्वत महत्व
इन दोनों कथाओं का सार यह है कि सावन सोमवार व्रत केवल वैवाहिक सुख या संकट निवारण तक ही सीमित नहीं है; यह समर्पण, संयम और विश्वास का प्रतीक है। प्राचीन काल से लेकर आज तक करोड़ों शिवभक्त इस व्रत को रखते हैं और भोलेनाथ से जीवन में सुख, समृद्धि और मोक्ष की कामना करते हैं। व्रती प्रातः स्नान के बाद निर्जल रहकर अथवा फलाहार करके शिवलिंग पर जल, बेलपत्र, दूध और मीठे पुष्प अर्पित करते हैं, "ॐ नमः शिवाय" मंत्र का जाप करते हैं और संध्या आरती के बाद व्रत तोड़ते हैं। देवी पार्वती की तपस्या और चंद्रदेव की प्रार्थना से शुरू हुआ माना जाने वाला सावन सोमवार का व्रत आज भी अटूट आस्था की परंपरा के रूप में जीवित है। इस व्रत से जुड़ा हर संकल्प हमें बताता है कि अटूट भक्ति और अनुशासित साधना से शिव की कृपा अवश्य प्राप्त होती है।

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