Next Story
Newszop

शाही अंदाज़: रानी-महारानियां पहनती थीं ऐसे कपड़े, जिनमें नहीं होता था धागों का इस्तेमाल, सोने-चांदी से होती थी कढ़ाई

Send Push

भारतीय इतिहास के पन्नों में राजघरानों की शान-ओ-शौकत का ज़िक्र हमेशा से लोगों को आकर्षित करता आया है। खासकर रानी-महारानियों की वेशभूषा, जो न केवल उनकी शाही हैसियत का प्रतीक होती थी, बल्कि भारत की पारंपरिक कारीगरी और सांस्कृतिक धरोहर की भी अद्भुत झलक पेश करती थी। हाल ही में सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक वीडियो ने इन प्राचीन पोशाकों की झलक दिखाई, जो आज के जमाने के डिजाइनर फैशन से भी कहीं ज्यादा बारीक और भव्य नजर आती हैं।

धागों से नहीं, सोने-चांदी से होती थी कढ़ाई

इन पोशाकों को देखकर सबसे पहली हैरानी की बात ये थी कि इनमें सामान्य धागों का उपयोग बिल्कुल नहीं होता था। रानियों की ड्रेस में सोने और चांदी के तारों से कढ़ाई की जाती थी, जिसे जरी-जरदोजी कहा जाता है। यह कला भारत में मुगल काल, खासकर अकबर के दौर में फली-फूली थी। हालांकि इसके प्रारंभिक संकेत ईरान (परशिया) से जुड़े माने जाते हैं।

जरी-जरदोजी में न केवल धातु के तार इस्तेमाल होते थे, बल्कि उनमें मोती, नग और कीमती पत्थरों की सजावट भी शामिल होती थी। एक ड्रेस को तैयार करने में चार से पांच कारीगरों को लगभग 15 दिन तक लगते थे।

कौन-कौन से कपड़े होते थे इस्तेमाल?

रानियों की पोशाकों के लिए चुने जाने वाले कपड़े भी बेहद खास होते थे। इनमें रेशम, मखमल और साटन जैसे महंगे और मुलायम कपड़े प्रयोग में लाए जाते थे। इन पर सोने-चांदी से डबका, गट्टा और लफ्फा जैसी पारंपरिक कढ़ाई की जाती थी। ये तकनीकें कपड़े को और भी चमकदार और रॉयल लुक देती थीं।

राजस्थानी रानियों की खास पोशाकें

राजस्थान की रानियां विशेष रूप से अपनी परंपरागत वेशभूषा के लिए मशहूर थीं। उनकी ड्रेस में घाघरा, चोली और ओढ़नी प्रमुख हुआ करती थी। ओढ़नी की लंबाई करीब ढाई से तीन मीटर होती थी, जो सिर ढकने के बाद भी कमर तक लटकती थी। इस पर गोटा-पट्टी, बंधेज और लहरिया जैसी कढ़ाई की जाती थी।

7वीं शताब्दी के कवि बाणभट्ट और 16वीं सदी के मलिक मुहम्मद जायसी ने भी इन शाही वस्त्रों का ज़िक्र किया है। यहां तक कि मीराबाई, जो अपनी भक्ति के लिए जानी जाती हैं, उनकी कविताओं में भी उनकी साधारण लेकिन शालीन पोशाकों का उल्लेख मिलता है।

इतिहास में दर्ज वस्त्र कला की झलक

प्राचीन भारत की वस्त्र निर्माण परंपरा की बात करें तो मोहनजोदड़ो (2500 ईसा पूर्व) की खुदाई में भी रंजक कुंड और कपास के अवशेष मिले हैं, जो दर्शाते हैं कि भारतीय वस्त्रकला हजारों साल पुरानी है। यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि भारतीय पोशाकों पर सोने और रत्नों का काम होता था।

जैन ग्रंथों और पाणिनि की अष्टाध्यायी में भी कपड़ा बुनने और सिलने की तकनीकों का उल्लेख मिलता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में वस्त्र निर्माण एक समृद्ध परंपरा रही है।

आज भी जीवित है ये शिल्प कला

हालांकि वक्त के साथ इन पोशाकों का रोज़मर्रा के उपयोग में आना कम हुआ है, लेकिन भारत के कुछ हिस्सों में अब भी ये पारंपरिक तकनीकें जीवित हैं। लखनऊ, रामपुर और बनारस जैसे शहरों में कारीगर अब भी जरी-जरदोजी का काम करते हैं और इसे ब्राइडल वियर, शेरवानी और साड़ियों में उपयोग करते हैं।


प्राचीन भारत की रानी-महारानियों की पोशाकें केवल कपड़े नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक धरोहर थीं। सोने-चांदी की कढ़ाई, महीन कारीगरी और पारंपरिक डिजाइनों ने इन्हें कालजयी बना दिया है। आज भी इन पोशाकों की झलक हमें भारतीय संस्कृति की समृद्धता का अहसास कराती है।

Loving Newspoint? Download the app now