नई दिल्ली: दुनिया की ग्लोबल कंसल्टिंग इंडस्ट्री 280 अरब डॉलर (करीब 24.2 लाख करोड़ रुपये) की है। इसमें भारतीय भरे पड़े हैं। लेकिन, अभी तक भारत एक भी बड़ा 'मेक इन इंडिया' कंसल्टिंग ब्रांड स्थापित नहीं कर पाया है। यह एक बड़ा विरोधाभास है। इसे प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य संजीव सान्याल ने उजागर किया है। 280 अरब डॉलर की ग्लोब इंडस्ट्री में भारत का योगदान सिर्फ 1.09 अरब डॉलर है। जबकि हजारों भारतीय सलाहकार मैकिन्से, बीसीजी और बिग 4 जैसी ग्लोबल कंपनियों में रणनीति संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं।
दिग्गज इकनॉमिस्ट संजीव सान्याल का कहना है कि भारतीय हर जगह ग्लोबल परामर्श में टैलेंट पूल पर हावी हैं। लेकिन, वे खुद की बराबर की भारतीय फर्म नहीं चला रहे हैं। सरकार भी इस स्थिति से अवगत है। भारतीय टैलेंट ग्लोबल कंसल्टिंग इंडस्ट्री की रीढ़ है। लेकिन, यह एक विडंबना ही है कि 2420000 करोड़ रुपये की इस विशाल ग्लोबल इंडस्ट्री में कोई भी भारतीय 'मेक इन इंडिया' कंसल्टिंग ब्रांड अपनी धाक नहीं जमा पाया है।
भारतीय पेशेवर ग्लोबल दिग्गजों के लिए रणनीति बनाने और संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फिर भी भारत का अपना योगदान सिर्फ 1.09 अरब डॉलर है। सान्याल ने इसके पीछे की संरचनात्मक बाधाओं को उजागर किया है।
हर जगह भारतीय, पर टॉप ब्रांड क्यों नहीं?सान्याल के अनुसार, भारतीय प्रतिभा ग्लोबल कंसल्टिंग सेक्टर में हावी है। आप उन्हें हर जगह पाएंगे। वे टॉप ग्लोबल फर्मों में महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हैं। लेकिन, वे उन्हीं के बराबर की किसी भारतीय फर्म को नहीं चला रहे हैं। यह बड़ा विरोधाभास है। इसका सीधा मतलब है कि भारत के पास कौशल और मानव संसाधन की कोई कमी नहीं है। लेकिन, एक मजबूत घरेलू ब्रांडिंग और वैश्विक स्तर पर पहचान बनाने में कहीं न कहीं कमी रह गई है।
कहां पड़ी हैं बेड़ियां?सान्याल ने उन प्रमुख कारणों के बारे में बताया जो भारतीय फर्मों को बड़ा बनने से रोकते हैं। उन्हें प्रतिस्पर्धा से बाहर रखते हैं। इनमें पक्षपातपूर्ण टेंडर मानदंड, अनुभव को मान्यता न मिलना व्यावसायिक क्षेत्रों का अलगाव, ब्रांडिंग पर प्रतिबंध और वैश्विक अवसरों की अनदेखी जैसे फैक्टर शामिल हैं। सरकार और निजी क्षेत्र के अनुबंधों के लिए निर्धारित ऊंची राजस्व सीमा (500 करोड़ रुपये और उससे अधिक) एक बड़ी बाधा है। यह नियम प्रभावी रूप से नई और उभरती भारतीय कंसल्टिंग फर्मों को बड़े अनुबंधों से बाहर कर देता है। इसका फायदा अक्सर बड़ी, स्थापित वैश्विक फर्मों को मिलता है। ये पहले से ही उस राजस्व सीमा को पार कर चुकी होती हैं। यह भारतीय फर्मों को अनुभव और पहचान बनाने का मौका ही नहीं देता।
भारतीय कंसल्टेंट मैकिन्से, BCG या बिग 4 जैसी ग्लोबल फर्मों में काम करते हुए अनुभव हासिल करते हैं। लेकिन, अपनी खुद की फर्म शुरू करते समय उस अनुभव को आगे नहीं ले जा सकते। इसका मतलब है कि उनके काम का श्रेय उन्हीं ग्लोबल फर्मों को मिलता है, न कि उस भारतीय प्रोफेशनल को। यह भारतीय पेशेवरों को अपनी विशेषज्ञता का लाभ उठाने और स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बनाने से रोकता है। इससे वे अपनी कंपनियों को मजबूत नहीं कर पाते।
भारत में वकीलों, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स और आर्किटेक्ट्स जैसी विभिन्न व्यावसायिक परिषदों में बहु-विषयक साझेदारियों के गठन पर प्रतिबंध है। वैश्विक फर्म ऐसी साझेदारियों पर फलती-फूलती हैं। वहां वे एकीकृत समाधान प्रदान करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को एक साथ लाती हैं। सान्याल के अनुसार, ये 'पेशेवर अलगाव मध्ययुगीन गिल्ड की तरह हैं।' एक ऐसी दुनिया में जो एकीकृत समस्या-समाधान पर चलती है, भारत के नियम सलाहकारों को 'अपने बक्सों में रहने' के लिए मजबूर करते हैं। इससे वो व्यापक सेवाएं प्रदान करने में अक्षम हो जाते हैं।
विदेशी फर्मों के उलट जो विदेश में अपने ब्रांड बनाती हैं और फिर प्रॉक्सी के जरिये भारत में प्रवेश करती हैं, भारतीय फर्मों को ब्रांडिंग और विज्ञापन पर कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। यह रोक उन्हें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विजिबिलिटी से वंचित करता है। यहां तक कि उन बाजारों में भी जहां विज्ञापन की अनुमति है, भारतीय फर्म अदृश्य रहती हैं। इससे वे वैश्विक व्यापार के अवसरों से चूक जाती हैं।
क्या बदलाव लाना होगा?सान्याल ने इस समस्या के समाधान के लिए कुछ महत्वपूर्ण नियामक सुधारों की वकालत की है। इसमें नैतिकता से समझौता किए बिना आधुनिक व्यावसायिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखना शामिल है। विभिन्न विशेषज्ञताओं को एक छत के नीचे लाने से भारतीय फर्मों को वैश्विक फर्मों की तरह एकीकृत समाधान प्रदान करने में मदद मिलेगी। प्रतिबंधों को हटाने से भारतीय फर्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने और विकास के लिए आवश्यक पूंजी जुटाने का अवसर मिलेगा। विज्ञापन पर उचित नियम होने चाहिए जो अत्यधिकता से बचें। लेकिन, फर्मों को अपनी सेवाओं को प्रभावी ढंग से बढ़ावा देने की अनुमति दें। सान्याल ने आईटी क्षेत्र का उदाहरण दिया। यह बिना किसी भारी नियामक नियंत्रण के फला-फूला।
दिग्गज इकनॉमिस्ट संजीव सान्याल का कहना है कि भारतीय हर जगह ग्लोबल परामर्श में टैलेंट पूल पर हावी हैं। लेकिन, वे खुद की बराबर की भारतीय फर्म नहीं चला रहे हैं। सरकार भी इस स्थिति से अवगत है। भारतीय टैलेंट ग्लोबल कंसल्टिंग इंडस्ट्री की रीढ़ है। लेकिन, यह एक विडंबना ही है कि 2420000 करोड़ रुपये की इस विशाल ग्लोबल इंडस्ट्री में कोई भी भारतीय 'मेक इन इंडिया' कंसल्टिंग ब्रांड अपनी धाक नहीं जमा पाया है।
भारतीय पेशेवर ग्लोबल दिग्गजों के लिए रणनीति बनाने और संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। फिर भी भारत का अपना योगदान सिर्फ 1.09 अरब डॉलर है। सान्याल ने इसके पीछे की संरचनात्मक बाधाओं को उजागर किया है।
हर जगह भारतीय, पर टॉप ब्रांड क्यों नहीं?सान्याल के अनुसार, भारतीय प्रतिभा ग्लोबल कंसल्टिंग सेक्टर में हावी है। आप उन्हें हर जगह पाएंगे। वे टॉप ग्लोबल फर्मों में महत्वपूर्ण पदों पर काम करते हैं। लेकिन, वे उन्हीं के बराबर की किसी भारतीय फर्म को नहीं चला रहे हैं। यह बड़ा विरोधाभास है। इसका सीधा मतलब है कि भारत के पास कौशल और मानव संसाधन की कोई कमी नहीं है। लेकिन, एक मजबूत घरेलू ब्रांडिंग और वैश्विक स्तर पर पहचान बनाने में कहीं न कहीं कमी रह गई है।
कहां पड़ी हैं बेड़ियां?सान्याल ने उन प्रमुख कारणों के बारे में बताया जो भारतीय फर्मों को बड़ा बनने से रोकते हैं। उन्हें प्रतिस्पर्धा से बाहर रखते हैं। इनमें पक्षपातपूर्ण टेंडर मानदंड, अनुभव को मान्यता न मिलना व्यावसायिक क्षेत्रों का अलगाव, ब्रांडिंग पर प्रतिबंध और वैश्विक अवसरों की अनदेखी जैसे फैक्टर शामिल हैं। सरकार और निजी क्षेत्र के अनुबंधों के लिए निर्धारित ऊंची राजस्व सीमा (500 करोड़ रुपये और उससे अधिक) एक बड़ी बाधा है। यह नियम प्रभावी रूप से नई और उभरती भारतीय कंसल्टिंग फर्मों को बड़े अनुबंधों से बाहर कर देता है। इसका फायदा अक्सर बड़ी, स्थापित वैश्विक फर्मों को मिलता है। ये पहले से ही उस राजस्व सीमा को पार कर चुकी होती हैं। यह भारतीय फर्मों को अनुभव और पहचान बनाने का मौका ही नहीं देता।
भारतीय कंसल्टेंट मैकिन्से, BCG या बिग 4 जैसी ग्लोबल फर्मों में काम करते हुए अनुभव हासिल करते हैं। लेकिन, अपनी खुद की फर्म शुरू करते समय उस अनुभव को आगे नहीं ले जा सकते। इसका मतलब है कि उनके काम का श्रेय उन्हीं ग्लोबल फर्मों को मिलता है, न कि उस भारतीय प्रोफेशनल को। यह भारतीय पेशेवरों को अपनी विशेषज्ञता का लाभ उठाने और स्वतंत्र रूप से अपनी पहचान बनाने से रोकता है। इससे वे अपनी कंपनियों को मजबूत नहीं कर पाते।
भारत में वकीलों, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स और आर्किटेक्ट्स जैसी विभिन्न व्यावसायिक परिषदों में बहु-विषयक साझेदारियों के गठन पर प्रतिबंध है। वैश्विक फर्म ऐसी साझेदारियों पर फलती-फूलती हैं। वहां वे एकीकृत समाधान प्रदान करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को एक साथ लाती हैं। सान्याल के अनुसार, ये 'पेशेवर अलगाव मध्ययुगीन गिल्ड की तरह हैं।' एक ऐसी दुनिया में जो एकीकृत समस्या-समाधान पर चलती है, भारत के नियम सलाहकारों को 'अपने बक्सों में रहने' के लिए मजबूर करते हैं। इससे वो व्यापक सेवाएं प्रदान करने में अक्षम हो जाते हैं।
विदेशी फर्मों के उलट जो विदेश में अपने ब्रांड बनाती हैं और फिर प्रॉक्सी के जरिये भारत में प्रवेश करती हैं, भारतीय फर्मों को ब्रांडिंग और विज्ञापन पर कड़े प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। यह रोक उन्हें घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विजिबिलिटी से वंचित करता है। यहां तक कि उन बाजारों में भी जहां विज्ञापन की अनुमति है, भारतीय फर्म अदृश्य रहती हैं। इससे वे वैश्विक व्यापार के अवसरों से चूक जाती हैं।
क्या बदलाव लाना होगा?सान्याल ने इस समस्या के समाधान के लिए कुछ महत्वपूर्ण नियामक सुधारों की वकालत की है। इसमें नैतिकता से समझौता किए बिना आधुनिक व्यावसायिक वास्तविकताओं को ध्यान में रखना शामिल है। विभिन्न विशेषज्ञताओं को एक छत के नीचे लाने से भारतीय फर्मों को वैश्विक फर्मों की तरह एकीकृत समाधान प्रदान करने में मदद मिलेगी। प्रतिबंधों को हटाने से भारतीय फर्मों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाने और विकास के लिए आवश्यक पूंजी जुटाने का अवसर मिलेगा। विज्ञापन पर उचित नियम होने चाहिए जो अत्यधिकता से बचें। लेकिन, फर्मों को अपनी सेवाओं को प्रभावी ढंग से बढ़ावा देने की अनुमति दें। सान्याल ने आईटी क्षेत्र का उदाहरण दिया। यह बिना किसी भारी नियामक नियंत्रण के फला-फूला।
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