भारत सरकार के सांख्यिकी मंत्रालय ने एक प्रेस नोट जारी कर बताया कि इस साल की पहली तिमाही (अप्रैल-जून 2025) में देश के विकास की दर में उछाल आया है और यह 7.7 फीसदी पर रही है। पिछले साल इसी तिमाही में विकास दर 6.5 फीसदी थी। और इससे पहले की तिमाही यानी 2024-25 की तीसरी तिमार दिसंबर-मार्च में 7.4 फीसदी थी। इस अप्रत्याशित रूप से उच्च विकास दर के अनुमान में कुछ प्रमुख संकेत लगता है छूट से गए हैं।
विकास दर में यह अप्रत्याशित वृद्धि मुख्यतः तीसरे पायदान के क्षेत्र की वृद्धि दर में तेजी के कारण दर्ज हुई है। पिछले साल के 6.8 फीसदी के मुकाबले इस क्षेत्र में इस तिमाही 9.3 फीसदी की वृद्धि दिखाई गई है। लेकिन दूसरे पायदान के क्षेत्र की वृद्धि दर 8.6 फीसदी से घटकर 7.0 फीसदी रह गई है, जबकि प्राथमिक क्षेत्र यानी पहले पायदान के क्षेत्र की वृद्धि दर पिछले वर्ष के 2.2 फीसदी के मुकाबले 2.8 फीसदी रही है।
प्राथमिक और दूसरे पायदान के क्षेत्रों में वृद्धि या तो कम हुई है या फिर 2024-25 की पहली तिमाही के ही समान रही है। खनन और उत्खनन की वृद्धि दर में जबरदस्त गिरावट आई है जोकि 6.6 फीसदी से घटकर माइनस 3.1 फीसदी दर्ज हुई है, जिससे पता चलता है कि इस क्षेत्र में 9.7 फीसदी का बदलाव हुआ है।
बिजली, गैस, जल आपूर्ती और अय आवश्यक सेवाओं के क्षेत्र में आधे फीसदी की वृद्धि दिख रही है जबकि पिछले साल इन क्षेत्रों की वृद्धि 10.2 फीसदी थी। यानी इन सेवाओं में वृद्धि दर में 9.7 फीसदी की गिरावट हुई है। इसी तरह उत्पादन क्षेत्र यानी मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर की वृद्धि स्थिर रही है, जबकि निर्माण यानी कंस्ट्रक्शन क्षेत्र में वृद्धि 10.1 फीसदी से गिरकर 7.6 फीसदी पर आ गई है।
विभिन्न क्षेत्रों की विकास दरों में काफ़ी अंतर दर्ज हुआ है। लेकिन तीसरे पायदान के क्षेत्र में वृद्धि में तेज़ वृद्धि का कारण क्या है? इसका उत्तर जानने के लिए, अनुमान लगाने के लिए अपनाई गई पद्धति को समझना और उसका विश्लेषण करना ज़रूरी है।
सरकारी दस्तावेज कहता है कि, “जीडीपी के त्रैमासिक अनुमान बेंचमार्क-संकेतक पद्धति का उपयोग करके संकलित किए जाते हैं, अर्थात, पिछले वित्तीय वर्ष (2024-25) की इसी तिमाही के लिए उपलब्ध अनुमानों को क्षेत्रों के प्रदर्शन को दर्शाने वाले प्रासंगिक संकेतकों का उपयोग करके निकाला जाता है।” इसी दस्तावेज में आगे कहा गया है कि, “अनुमान के लिए इस्तेमाल किए गए प्रमुख संकेतकों में दिखाई गई वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि दर (फीसद में) साथ में लगे संलग्नक-बी में दी गई है।”
लेकिन, एनेक्सर यानी संलग्नक में दिए गए आंकड़े 2024-25 की तुलना में अर्थव्यवस्था में मंदी का संकेत देते हैं। सूचीबद्ध कुल 22 मदों में से सिर्फ पांच में पिछले साल के मुकाबले वृद्धि दिखाई देती है। ये हैं - सीमेंट उत्पादन, प्रमुख बंदरगाहों पर माल ढुलाई, राजस्व व्यय यानी सरकारी खर्च, ब्याज के रूप में कम भुगतान और सब्सिडी (केंद्र सरकार), निर्यात घटाकर आयात और पूंजीगत वस्तुएं यानी कैपिटल गुड्स।
वहीं सात मदों में उल्लेखनीय गिरावट देखी गई है। ये हैं - कोयला उत्पादन, इस्पात की खपत, निजी वाहनों की बिक्री, हवाई अड्डों पर माल ढुलाई, रेलवे यात्री किलोमीटर, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) खनन और बिजली का उत्पादन सूचकांक। शेष 10 मदों में वृद्धि में मामूली गिरावट देखी गई है।
इसके अलावा, ये आंकड़े उपभोग और तीसरे पायदान के क्षेत्र में वृद्धि में गिरावट का भी संकेत देते हैं। और अंत में, देखें तो हाल ही में जारी आईआईपी यानी औद्योगिक उत्पादन के आंकड़े बताते हैं कि 2025-26 की पहली तिमाही में इसमें मुश्किल से 2 फीसद की वृद्धि हुई। इसलिए, दूसरे पायदान के क्षेत्र की वृद्धि में भी तेज़ी नहीं आ पाई होगी।
संक्षेप में देखें तो, यदि अनुमान में प्रयुक्त पद्धति को जैसा कहा जा रहा है वैसे ही पढ़ लिया जाए तो भी 2025-26 की प्रथम तिमाही में विकास दर 2024-25 की तुलना में नहीं बढ़ी होगी।
जीडीपी के आंकड़े का आंकलन करने की जो पद्धति अपनाई गई है, उसमें एक बड़ी समस्या है असंगठित क्षेत्र के आंकड़ों की गैर मौजूदगी। इस आकलन में संगठित क्षेत्र के थोड़े-बहुत आंकड़ों को आधार बनाया जाता है।
मिसाल के तौर पर उद्योगों के लिए, आँकड़े 'सूचीबद्ध कंपनियों के उपलब्ध तिमाही वित्तीय नतीजों के आधार पर उनके वित्तीय प्रदर्शन' और आईआईपी पर आधारित होते हैं। लेकिन इसमें सिर्फ कुछ सौ कंपनियों के उपलब्ध आकंड़े को ही लिया गया है और दूसरा आईआईपी में छोटे और सूक्ष्म क्षेत्रों को शामिल नहीं किया गया है जबकि इकी संख्या आईआईपी में शामिल बड़ी और मध्यम इकाइयों से हज़ार गुना ज़्यादा है और जो एमएसएमई क्षेत्र के 97.5 फीसदी रोज़गार प्रदान करते हैं।
इसलिए, यह धारणा ही गलत है कि असंगठित क्षेत्र को संगठित क्षेत्र के कुछ उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर समझा जा सकता है।
एक मिसाल के जरिए इसे और अच्छे से समझा जा सकता है। व्यापार, होटल, परिवहन, संचार और प्रसारण से जुड़ी सेवाओं से जुड़े क्षेत्र की वृद्धि दर 5.4% से बढ़कर 8.6% हो गई है। इस क्षेत्र का सकल मूल्य वर्धन (जीवीए) में हिस्सा 16.75 फीसद है और इसमें संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्र शामिल हैं। हालांकि, इसके आंकड़े केवल संगठित क्षेत्र, जैसे ई-कॉमर्स, के लिए ही उपलब्ध हैं, जो लगभग 25 फीसदी की दर से बढ़ रहा है।
ऐसी मजबूत वृद्धि तो तभी दिखेगी जब असंगठित व्यापार यानी आस-पड़ोस के खुदरा दुकानों आदि की बिक्री कम हुई हो। इसलिए, सकल घरेलू उत्पाद के इस घटक के लिए जितनी अधिक वृद्धि दिखाई जाएगी, असंगठित क्षेत्र में उतनी ही अधिक गिरावट होगी।
संक्षेप में कहें तो, जीडीपी के घटते हुए घटक के साथ तेज़ी से बढ़ते हुए घटक का भी संबंध होता है, जिससे जीडीपी का कहीं अधिक अनुमान लगाया जाता है। यह तरीका तीसरे पायदान के अन्य प्रमुख घटकों और विनिर्माण क्षेत्र पर भी लागू होगा। इसके अलावा, जीडीपी का अधिक अनुमान अन्य खर्च वाले घटकों, जैसे निजी अंतिम उपभोग और निवेश यानी आम लोगों द्वारा खर्च करने और निजी क्षेत्र द्वारा निवेश किए जाने को भी प्रभावित करेगा।
भारतीय रिज़र्व बैंक ने क्षमता उपयोग और उपभोक्ता विश्वास के जो आंकड़े जारी किए थे, वे तो किसी भी तीव्र वृद्धि का संकेत नहीं देते हैं। चूंकि ये संगठित क्षेत्र के सर्वेक्षणों पर आधारित हैं, इसलिए ये संकेत देते हैं कि पूंजी निर्माण या निजी उपभोग में कोई तीव्र वृद्धि नहीं हो सकती, जैसा कि आधिकारिक जीडीपी आंकड़े दर्शाते हैं।
तो सवाल है कि क्या अब जीडीपी का अनुमान लगाने में होने वाली गलतियां या चूक बढ़ गई हैं? अगर यह परिकल्पना सही है कि संगठित क्षेत्र की विकास दर जितनी ज़्यादा होगी, जीडीपी के अनुमान में गलती या त्रुटि उतनी ही ज़्यादा होगी, तो वास्तव में त्रुटि बढ़ी है। यही कारण है कि नोटबंदी के बाद से 'विसंगतियों' में तेज़ बदलाव आए हैं और ऊपर बताए गए ज्यादा आवृत्ति वाले आंकड़ों और अनुमानित विकास दरों के बीच का अंतर भी बढ़ा है।
मोटी बात यह है कि कोविड महामारी, जीएसटी को खामियों के साथ लागू करने का तरीका और नोटबंदी के बाद जीडीपी के आकलन की पद्धति में बदलाव की जरूरत है। इसके सात ही असंगठित क्षेत्र से और अधिक आंकड़े जमा करने की भी आवश्यकता है, ताकि वे संगठित क्षेत्र की प्रॉक्सी न बनकर रह जाएं। जब तक इन दो विषमताओं को ठीक नहीं किया जाता, तब तक देश में अपर्याप्त रोज़गार सृजन और निरंतर गरीबी की ज़मीनी हकीकत को देखते हुए जीडीपी के ऊंचे आंकड़ों को लेकर संदेह बना रहेगा।
(यह लेख मूल रूप से दि वायर में अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ है। इसके लेखक प्रोफेसर अरुण कुमार जेएनयू में अर्थशास्त्र के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और 'भारतीय अर्थव्यवस्था का सबसे बड़ा संकट: कोरोनावायरस का प्रभाव और आगे की राह' (2020) के लेखक हैं।)You may also like
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