जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ओमर अब्दुल्ला ने एक बार फिर राष्ट्रीय विमर्श में एक कड़े सवाल को उठाया है। इंडिया टुडे टीवी को दिए गए विशेष साक्षात्कार में उन्होंने पाकिस्तान की ओर से हो रही सीमा-पार गोलीबारी में मारे गए कश्मीरी नागरिकों की उपेक्षा पर गहरी निराशा जताई। उनका कहना है कि देश 'चुनिंदा आक्रोश' दिखा रहा है — कुछ मौतों को तो राष्ट्रव्यापी शोक में बदल देता है, लेकिन कश्मीर के आम नागरिकों की मौत केवल ‘औपचारिक संवेदनाओं’ तक सिमट जाती है।
पहलगाम की पीड़ा सही, लेकिन बाकी मौतों का क्या?
उमर अब्दुल्ला ने कहा, "पहलगाम में जो 26 निर्दोष पर्यटक मारे गए, उस पर देश ने सही तरीके से शोक जताया, लेकिन जो लोग राजौरी, पुंछ, उरी, और बारामुला में पाकिस्तानी गोलाबारी में मारे गए, उनके लिए कहीं कोई आवाज़ नहीं उठी।" उन्होंने बताया कि इन हमलों में हर धर्म, हर समुदाय के लोग मारे गए — मुस्लिम, हिंदू, सिख, आम नागरिक और सेना के जवान, सबने अपनी जान गंवाई। अगर मंदिर और गुरुद्वारे दुश्मन की गोलाबारी की जद में आए, तो पूंछ के मदरसे भी उसी सीमा में थे।
पूंछ के जुड़वां बच्चों की मौत किसे याद है?
मुख्यमंत्री ने बीते हफ्ते हुई एक दर्दनाक घटना का ज़िक्र किया, जिसमें 12 वर्षीय जुड़वां भाई-बहन जोया और अयान खान, अपनी झोपड़ी में तब मारे गए जब एक मोर्टार शेल उनके किराए के घर पर गिरा। इस हमले में उनके चाचा और चाची की भी जान चली गई। उन्होंने कहा, "ये भी तो उसी युद्ध की कहानियाँ हैं, जो हमारे देश की सीमाओं पर हर दिन लिखी जाती हैं — लेकिन इन्हें कोई नहीं पढ़ता।"
केवल आधी कहानी क्यों दिखाई जा रही है?
उमर अब्दुल्ला ने मीडिया और सरकार से यह सवाल भी पूछा कि क्या कश्मीर के अंदरूनी हिस्सों में हो रही मौतें ‘कम महत्व’ की हैं? उन्होंने कहा, "पहलगाम की कहानी दिखाई जा रही है, लेकिन मेरे एडिशनल डिस्ट्रिक्ट डेवलपमेंट कमिश्नर की मौत, जो रंबन में अपने घर में शहीद हुए, उसका क्या? वो कहानी कौन बताएगा?"
प्रधानमंत्री की चेतावनी का समर्थन, लेकिन सबके लिए न्याय जरूरी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस बयान पर कि भारत भविष्य में किसी भी आतंकी हमले का करारा जवाब देगा, उमर अब्दुल्ला ने समर्थन जताते हुए कहा, "हर देशभक्त नागरिक शांति का अधिकार रखता है और उसे बनाए रखने के लिए कड़ी प्रतिक्रिया देना आवश्यक है।" लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रीय चेतना में ‘कश्मीर के लोगों’ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
उमर अब्दुल्ला की यह टिप्पणी एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या कश्मीर में मारे गए नागरिकों की जान को वह मान्यता मिलती है जिसकी वे हकदार हैं? जब एक ही सीमा पर, एक ही दुश्मन की गोलियों से जान जाती है, तो फर्क केवल पहचान का क्यों होता है?
यह बयान न केवल भारत की आंतरिक एकता पर एक प्रश्नचिन्ह है, बल्कि यह राष्ट्रीय संवेदना की व्यापकता पर भी एक आवश्यक आत्ममंथन की माँग करता है।
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