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1971 के मुक्ति संग्राम ने बांग्लादेश की रखी नींव, शिमला संधि के तहत भारत-पाक संबंधों को मिली नई ऊंचाई

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नई दिल्ली, 1 जुलाई . 1971 का बांग्लादेश मुक्ति संग्राम दक्षिण एशिया के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ था, जिसने न केवल बांग्लादेश को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में स्थापित किया, बल्कि भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को भी नए सिरे से परिभाषित किया.

इस युद्ध के बाद 2 जुलाई 1972 को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला में एक ऐतिहासिक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसे शिमला संधि के नाम से जाना जाता है. यह संधि दोनों देशों के बीच शांति और सहयोग की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था.

1971 का युद्ध भारत-पाक संबंधों में एक महत्वपूर्ण घटना थी. पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में बंगाली आबादी के खिलाफ पश्चिमी पाकिस्तान की सरकार द्वारा किए गए दमन और नरसंहार ने लाखों शरणार्थियों को भारत में शरण लेने के लिए मजबूर किया. भारत ने मानवीय और सामरिक कारणों से इस संकट में हस्तक्षेप किया.

दिसंबर 1971 में भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश किया और मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर एक त्वरित और निर्णायक युद्ध लड़ा. 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने ढाका में आत्मसमर्पण कर दिया और बांग्लादेश एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभरा.

इस युद्ध में भारत ने लगभग 93,000 पाकिस्तानी सैनिकों को युद्धबंदी बनाया, जिसने दोनों देशों के बीच तनाव को चरम पर पहुंचा दिया. युद्ध के बाद दोनों देशों के बीच शांति स्थापित करने की आवश्यकता थी. इंदिरा गांधी और जुल्फिकार अली भुट्टो ने इस दिशा में एक साहसिक कदम उठाया.

28 जून से 2 जुलाई 1972 तक हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में दोनों नेताओं के बीच गहन वार्ता हुई. इस वार्ता का उद्देश्य युद्ध के परिणामों को संबोधित करना, युद्धबंदियों की रिहाई और भविष्य में द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करना था. शिमला संधि इस वार्ता का परिणाम थी, जिस पर 2 जुलाई 1972 को हस्ताक्षर किए गए. संधि के प्रमुख बिंदु शिमला संधि के तहत दोनों देशों ने कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर सहमति जताई.

पहला, दोनों देशों ने संयुक्त राष्ट्र चार्टर के सिद्धांतों का पालन करने और एक-दूसरे की संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और स्वतंत्रता का सम्मान करने का वचन दिया. दूसरा, दोनों पक्षों ने सभी विवादों को द्विपक्षीय बातचीत के माध्यम से हल करने पर सहमति जताई, जिससे तीसरे पक्ष की मध्यस्थता की संभावना को खारिज किया गया. तीसरा, युद्ध के बाद की स्थिति को सामान्य करने के लिए कदम उठाए गए, जिसमें युद्धबंदियों की रिहाई और 1971 की युद्ध रेखा को नियंत्रण रेखा (एलओसी) के रूप में मान्यता देना शामिल था. संधि में यह भी कहा गया कि दोनों देश भविष्य में एक-दूसरे के खिलाफ बल प्रयोग से बचेंगे.

युद्धबंदियों की रिहाई और नियंत्रण रेखा की स्थापना ने जम्मू-कश्मीर में तनाव को कम करने में मदद की. इसके अलावा, संधि ने द्विपक्षीय वार्ता को प्राथमिकता देकर दोनों देशों को अपने मतभेदों को बातचीत के जरिए हल करने का रास्ता दिखाया. हालांकि, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत ने युद्ध में अपनी मजबूत स्थिति का पूरा लाभ नहीं उठाया और कश्मीर मुद्दे पर एक स्थायी समाधान निकालने में असफल रहा.

मौजूदा समय में कश्मीर मुद्दा और सीमा पर तनाव समय-समय पर दोनों देशों के बीच तनाव पैदा करते हैं.

एकेएस/एबीएम

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