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गोबर, गुस्सा और विश्वविद्यालय की गिरती गरिमा

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-प्रियंका सौरभ

दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्रों द्वारा क्लासरूम और प्रिंसिपल के घर पर गोबर लीपने की घटना केवल अनुशासनहीनता नहीं, बल्कि एक गहरी असंतोष की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति थी। इस विरोध ने सत्ता और शिक्षा व्यवस्था के पाखंड को उजागर किया। जहां एक ओर गोबर को सांस्कृतिक प्रतीक माना जाता है, वहीं जब छात्र उसी प्रतीक का इस्तेमाल विरोध में करते हैं, तो उसे ‘असभ्य’ करार दिया जाता है। विश्वविद्यालय अब संवाद के नहीं, सत्ता के मंच बनते जा रहे हैं, जहां छात्रों की असहमति को दबाया जाता है। इस असामान्य विरोध ने न केवल व्यवस्था की संवेदनहीनता पर सवाल खड़े किए, बल्कि यह भी बताया कि प्रतीकों के ज़रिए भी तीखा प्रतिरोध संभव है। जब असहमति की जगह छिन जाती है, तो गुस्सा प्रतीकों के ज़रिए बोलता है, कभी-कभी गोबर से भी।

दिल्ली विश्वविद्यालय जिसे भारत के सबसे प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थानों में गिना जाता है, हाल ही में एक अजीबोगरीब और प्रतीकात्मक विरोध का केंद्र बना। कुछ छात्रों ने क्लास रूम की दीवारों पर गोबर लीप दिया और प्रिंसिपल के घर के बाहर भी गोबर फेंक दिया। यह कोई फिल्मी सीन नहीं था, न ही कोई ग्रामीण उत्सव। यह था एक गुस्से से भरा राजनीतिक वक्तव्य। यह घटना न केवल ध्यान खींचती है, बल्कि कई गहरे और असहज सवाल भी खड़े करती है। क्या विश्वविद्यालय अब सिर्फ सत्ता का विस्तार बन चुके हैं? क्या छात्र आंदोलन केवल ‘विचारों’ से नहीं, अब ‘गंध’ से भी संवाद करने लगे हैं?

यह विरोध दिल्ली यूनिवर्सिटी के साउथ कैंपस स्थित एक कॉलेज में हुआ, जहां छात्रों ने गोबर लिपकर क्लासरूम को ‘पवित्र’ करने की कोशिश की। दरअसल, यह ‘पवित्रता’ का तंज था, एक ऐसे सिस्टम पर, जिसे छात्र ‘अपवित्र’ मानते हैं। कहा गया कि यह विरोध जातिगत भेदभाव, एक दलित प्रोफेसर के साथ अन्याय और प्रशासन की असंवेदनशीलता के खिलाफ था। छात्रों ने न सिर्फ कक्षाओं को गोबर से लीपा, बल्कि प्रिंसिपल के घर तक जाकर वहां भी प्रदर्शन किया।दरअसल भारत में गोबर का उपयोग सदियों से पवित्रता, शुद्धता और स्वदेशी जीवनशैली के प्रतीक के रूप में होता आया है। लेकिन इस मामले में इसका प्रयोग गहराई से व्यंग्यात्मक था। यह एक ऐसा प्रतीक था जो न केवल सत्ता की ‘पवित्रता’ को उलट देता है, बल्कि यह दिखाता है कि छात्र अब विरोध के पारंपरिक तरीकों से आगे बढ़कर, सत्ता की भाषा को उसके ही प्रतीकों से जवाब दे रहे हैं।

भारतीय विश्वविद्यालय धीरे-धीरे उस विचारभूमि से हटते जा रहे हैं जहां असहमति को प्रोत्साहन मिलता था। आज यदि कोई छात्र या प्रोफेसर सत्ता के खिलाफ बोलता है तो उसे ‘राष्ट्रविरोधी’, या ‘विकास-विरोधी’ कहा जाने लगता है। कैंपस अब लोकतांत्रिक संवाद के केंद्र नहीं, बल्कि अनुशासन और डर के घेरे बनते जा रहे हैं। छात्रों के इस कदम को केवल ‘असभ्यता’ कहकर खारिज करना आसान है, लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि यह घटना उस निराशा और हताशा की उपज है जो वर्षों से भीतर ही भीतर सुलग रही है। जब संवाद के सारे रास्ते बंद कर दिए जाते हैं तो प्रतीकात्मक और चौंकाने वाले कदम ही एकमात्र विकल्प बनते हैं।

निश्चित रूप से गोबर से दीवारें लीपना किसी भी संस्थान के लिए एक अनुशासनहीन हरकत मानी जाएगी लेकिन यह भी सोचना होगा कि जब छात्र अपनी बात कहने के लिए इतना असामान्य तरीका अपनाते हैं तो समस्या केवल छात्रों में नहीं, व्यवस्था में भी है। वे किस हद तक खुद को असहाय और अनसुना समझते हैं, यह इस घटना से ज़ाहिर होता है। यह विरोध न तो हिंसक था, न ही शारीरिक नुकसान पहुंचाने वाला लेकिन यह मानसिक और सांस्कृतिक असहजता पैदा करने वाला जरूर था। शायद यही इसका उद्देश्य भी था, लोगों को हिलाकर रख देना, ध्यान खींचना, और एक झटके में सत्ता की नकली गरिमा को धूल-गोबर में मिला देना।

छात्रों का प्रदर्शन प्रिंसिपल के निजी घर तक पहुंचना न केवल प्रतीकात्मक था, बल्कि यह दर्शाता है कि छात्रों को अब संस्थागत दायरे में न्याय की उम्मीद नहीं रही। जब कॉलेज के भीतर के मंच निष्क्रिय हो जाते हैं, तो विरोध निजी दायरे तक पहुंच जाता है। यह खतरनाक संकेत हैं, न केवल शिक्षा व्यवस्था के लिए, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए भी लेकिन दुर्भाग्यवश किसी ने यह नहीं पूछा कि छात्र ऐसा क्यों कर रहे हैं? किस घटना ने उन्हें इस हद तक पहुंचाया? किसने संवाद के रास्ते बंद किए? मीडिया अक्सर लक्षणों पर बहस करता है, लेकिन बीमारी की जड़ तक नहीं जाता।

सत्ता का दोहरापनसत्ता जब गाय और गोबर को संस्कृति का हिस्सा मानकर उन्हें नीतियों में शामिल करती हैं, जैसे गोबर आधारित उत्पादों को बढ़ावा देना, पंचगव्य को चिकित्सा बताना। तब वह ‘धर्म-सम्मत’ होता है लेकिन जब यही प्रतीक छात्रों के विरोध में आते हैं तो वे ‘अश्लील’ और ‘असभ्य’ बन जाते हैं। यही सत्ता का दोहरापन है। छात्रों का यह विरोध सत्ता के इस पाखंड की पोल खोलता है। यह दिखाता है कि सांस्कृतिक प्रतीकों का प्रयोग केवल सत्ता के लिए सुरक्षित नहीं है, बल्कि आम जनता भी उन्हें विरोध के औजार बना सकती है। मान लीजिए अगली बार छात्र प्रशासनिक आदेश को पवित्र मानकर उस पर गंगाजल छिड़क दें, तो क्या तब भी यह ‘असभ्यता’ मानी जाएगी, या यह ‘संस्कृति’ के सम्मान में गिना जाएगा? जब प्रतीकों की राजनीति हो, तो प्रतीकों से ही जवाब देना सबसे तीखा व्यंग्य होता है और यही छात्रों ने किया।

क्या है समाधान इस घटना के बहाने यह जरूरी हो गया है कि विश्वविद्यालयों में संवाद की संस्कृति को फिर से मजबूत किया जाए। छात्रों की आवाज़ को सुनने, समझने और मान्यता देने की प्रक्रिया को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए। प्रोफेसरों और छात्रों के बीच विश्वास और सम्मान की नींव फिर से खड़ी की जानी चाहिए। किसी भी असहमति को देशद्रोह या अनुशासनहीनता बताने की प्रवृत्ति पर लगाम लगानी होगी। छात्रों को यह समझाना भी जरूरी है कि विरोध का तरीका ऐसा हो जो व्यापक समाज में उनकी बात को सही तरीके से पहुँचाए न कि केवल क्षणिक ध्यान आकर्षित करे। यह घटना एक प्रतीकात्मक चेतावनी है कि शिक्षा का मंदिर यदि सत्ता की चौकी बन जाए तो छात्र वहीं पर ‘शुद्धि यज्ञ’ करने लगते हैं। गोबर का यह विरोध हमें यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र में असहमति की गुंजाइश बनी रहनी चाहिए, वरना दीवारें ही नहीं, सोच भी गंधाने लगती है।

(लेखिका, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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हिन्दुस्थान समाचार / सीपी सिंह

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