आरएसएस सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के संविधान की प्रस्तावना में 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों पर दिए गए बयान को लेकर कांग्रेस ने आरएसएस पर निशाना साधा है.
कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी की सोच ही संविधान विरोधी है.
कांग्रेस ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, "ये बाबा साहेब के संविधान को ख़त्म करने की वो साज़िश है, जो आरएसएस- बीजेपी हमेशा से रचती आई है."
इससे पहले दत्तात्रेय होसबाले ने गुरुवार को एक कार्यक्रम में कहा था कि 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में शामिल किया गया था और "इन्हें प्रस्तावना में रहना चाहिए या नहीं, इस पर विचार किया जाना चाहिए."
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होसबाले का कहना है, "आपातकाल के दौरान संविधान की प्रस्तावना में दो शब्द जोड़े गए. ये दो शब्द 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' हैं. ये प्रस्तावना में पहले नहीं थे."
उन्होंने कहा, "बाबा साहेब ने जो संविधान बनाया, उसकी प्रस्तावना में ये शब्द कभी नहीं थे. आपातकाल के दौरान जब मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, संसद काम नहीं कर रही थी, न्यायपालिका पंगु हो गई थी, तब ये शब्द जोड़े गए."
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संविधान पर संघ सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले के बयान पर कांग्रेस के कई नेताओं ने प्रतिक्रिया दी है.
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सोशल मीडिया एक्सपर लिखा, "आरएसएस ने कभी भी भारत के संविधान को स्वीकार नहीं किया. उसने आंबेडकर, नेहरू और संविधान को तैयार करने में शामिल हर किसी पर 30 नवंबर 1949 के बाद से हमला किया है."
जयराम रमेश ने आरोप लगाया है कि आरएसएस के शब्दों में भारत का संविधान ''मनुस्मृति से प्रेरित नहीं'' था.
जयराम रमेश का कहना है, "आरएसएस और बीजेपी बार-बार एक नए संविधान की बात करती रही है. यह साल 2024 के नरेंद्र मोदी के लोकसभा चुनाव प्रचार का मुद्दा था. भारत के लोगों ने उनके इस मुद्दे को ठुकरा दिया. इसके बावजूद आरएसएस के इकोसिस्टम से संविधान के बुनियादी स्वरूप को बदलने की मांग जारी है."
कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने भी सोशल मीडिया एक्स पर इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया दी है.
उन्होंने लिखा है, "ये आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले हैं. इन्होंने संविधान की प्रस्तावना से 'समाजवादी' और 'धर्मनिरपेक्ष' शब्दों को हटाने की मांग की है. आरएसएस और बीजेपी किसी भी कीमत पर संविधान को बदलना क्यों चाहते हैं?"
कांग्रेस पार्टी का कहना है कि, "लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी के नेता खुलकर कह रहे थे कि हमें संविधान बदलने के लिए संसद में 400 से ज्यादा सीटें चाहिए. अब एक बार फिर वे अपनी साजिशों में लग गए हैं, लेकिन कांग्रेस किसी कीमत पर इनके मंसूबों को कामयाब नहीं होने देगी."
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "दत्तात्रेय होसबाले का बयान एक महत्वपूर्ण पड़ाव है. जब इंदिरा गांधी के शासन में ये शब्द जोड़े गए और बाद में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उनके सहयोगियों ने कहा कि इन शब्दों ने हटाएं, क्योंकि इससे फ़ायदा कम और नुक़सान ज़्यादा होगा."
"हमारा देश विषमताओं का देश है. जब तक देश में ग़रीब और पिछड़े लोग हैं तब तक इसका असर है. हो सकता है कि गोवा में इसका कोई असर न हो लेकिन बिहार, बंगाल और असम में इसका बड़ा असर होगा."
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साल 2024 के लोकसभा चुनावों से ठीक पहले बीजेपी के कुछ नेताओं के बयानों के बीच यह कहा जाने लगा कि अगर बीजेपी 'अबकी बार 400 पार' के नारे को हक़ीक़त में बदल लेती है तो वह संविधान को बदल देगी.
इस दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी चुनावी रैलियों और सभाओं में संविधान की एक किताब के साथ देखे गए.
हालांकि बीजेपी ने कई बार स्पष्टीकरण दिया कि ऐसा करने का उसका कोई इरादा नहीं है लेकिन ऐसे कई मौक़े देखे गए हैं जब बीजेपी ने संविधान में बड़े बुनियादी बदलाव की मंशा ज़ाहिर की है.
भारत के संविधान, राष्ट्रध्वज और जाति व्यवस्था पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारों की आलोचना अक्सर होती रही है.
भारत के संविधान के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रिश्ता काफ़ी जटिल रहा है. आज़ादी के बाद से अब तक अलग-अलग मौक़ों पर संघ ने इन तीनों अहम मुद्दों पर अपने विचार कई बार बदले हैं.
'बंच ऑफ़ थॉट्स' नाम की मशहूर किताब में संघ के दूसरे सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर लिखते हैं, "हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है. इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे हमारा अपना कहा जा सके."
"क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में एक भी ऐसा संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या है और जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य क्या है? नहीं!"
भारत के संविधान के मुद्दे पर बीजेपी के नेता भी अलग-अलग दौर में अपनी बात करते रहे हैं.
24 जनवरी 1993 को आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने भी संविधान पर नए सिरे से विचार करने की मांग दोहराई थी.
जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार बनी थी तो उन्होंने संविधान की समीक्षा के लिए एक कमेटी गठित करने का फ़ैसला किया था.
वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई कहते हैं, "जब बीजेपी सत्ता में नहीं थी तब ऐसे मुद्दों पर आरएसएस के विचार का अलग महत्व है और जब सत्ता में बैठी पार्टी और उसके संगठन पर आपका असर हो तो इसका अलग महत्व है."
रशीद किदवई कहते हैं, "साल 2024 के लोकसभा चुनावों के दौरान बीजेपी ने खुलकर ऐसा कुछ नहीं कहा था लेकिन उसके कुछ नेताओं ने संविधान बदलने का शिगुफ़ा छेड़ा और बीजेपी को चुनावों में इसका नुक़सान हुआ."
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हालांकि साल 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने अपने कार्यकाल की शुरुआत संविधान को ''भारत की एकमात्र पवित्र पुस्तक'' और संसद को ''लोकतंत्र का मंदिर'' कहकर की थी.
इस दौरान पिछले कुछ साल में संविधान को लेकर संघ ने अपना रुख़ स्पष्ट करने की कोशिश भी की है.
साल 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में संघ के मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा, "ये संविधान हमारे लोगों ने तैयार किया और ये संविधान हमारे देश का कंसेंसस (आम सहमति) है इसलिए संविधान के अनुशासन का पालन करना सबका कर्त्तव्य है."
"संघ इसको पहले से ही मानता है...हम स्वतंत्र भारत के सब प्रतीकों का और संविधान की भावना का पूर्ण सम्मान करके चलते हैं."
वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडनीस कहती हैं, "मेरे विचार में बीजेपी आरएसएस के पुराने रुख़ में कोई बदलाव नहीं आया है. उनके टोन में एक तेज़ी आ गई है, जो पहले नहीं थी. पहले धीरे से बोलते थे और अब ज़ोर से बोलने लगे हैं. इसमें कोई विशेष अंतर आया हो ऐसा नहीं लगता है."
उनका कहना है, "कुल मिलाकर अगर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है तो इसके लिए क्या करना होगा, यह सवाल कई लोगों ने उठाया है और उनमें राजीव भार्गव का नाम अहम है, वो प्रोफ़ेसर भी हैं और इस मुद्दे पर काफ़ी रिसर्च कर चुके हैं. उनका कहना है कि 'इसके लिए सबसे पहला काम है प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द हटाना होगा' और यही बात होसबाले कर रहे हैं."
अदिति फडनीस कहती हैं, "हालांकि इसमें व्यावहारिक समस्याएं हैं. आप प्रस्तावना को नहीं बदल सकते और इस मुद्दे को कोर्ट में नहीं ले जा सकते. ये सोशलिस्ट शब्द क्यों बदलना चाहते हैं मेरी समझ में नहीं आता है. यह सरकार पहले की सरकारों से ज़्यादा सोशलिस्ट है. इस सरकार ने ग़रीबों के लिए बहुत से काम किए हैं और हमेशा ये बताया है कि ग़रीब चिंता न करें, क्योंकि उनके लिए कोई मौजूद है."
रशीद किदवई भी मानते हैं कि प्रस्तावना में किसी तरह के बदलाव की कोशिश से सुप्रीम कोर्ट से टकराव बढ़ेगा.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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