हाल ही में बॉलीवुड कलाकार आमिर ख़ान की एक फ़िल्म रिलीज़ हुई है जो अपने स्टार कास्ट के लिए चर्चा में है. इस फ़िल्म में कई न्यूरोडाइवरजेंट कलाकारों ने काम किया है जिनमें डाउन सिंड्रोम, ऑटिज़्म जैसी स्थितियों वाले कलाकार हैं.
फ़िल्म 'सितारे ज़मीन पर' में एक संवाद है जो विकलांगता को लेकर लोगों के नज़रिए को भी दर्शाता है.
इस संवाद में एक सुनवाई के दौरान जज निर्देश देती हैं कि कोच (आमिर) इंटलेक्चुएली डिसएबल्ड लोगों की बास्केटबॉल टीम को प्रशिक्षित करें.
जवाब में आमिर ख़ान कहते हैं, "मैडम तीन महीनों के लिए पागलों को सिखाऊँगा मैं? और ये क्या बात हुई पागल को पागल मत बोलो?"
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वैसे साल भर में बनी कुल हिंदी फ़िल्मों का नाममात्र हिस्सा ही विकलांग किरदारों पर बनता है- चाहे वो शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति हो या इंटेलेक्चुअली डिसएबल्ड.
स्पर्श का नसीर- 'हमें मदद चाहिए तरस नहीं'
यहाँ 1980 में सई परांजपे की हिंदी फ़िल्म 'स्पर्श' याद आती है, जिसमें नसीरुद्दीन शाह देख नहीं सकते. वो एक ऐसे स्कूल के प्रिंसिपल हैं जहां वो बच्चे पढ़ाई करते हैं जो देख नहीं सकते.
फ़िल्म का एक सीन है जहाँ शबाना आज़मी इन बच्चों को पढ़ाने में दिलचस्पी दिखाती हैं और कहती हैं, ''मैं यही चाहूँगी कि बेचारों को ज़्यादा से ज़्यादा दे सकूँ.''
ये सुनकर नसीरुद्दीन शाह बोलते हैं, "एक छोटी-सी अर्ज़ है. एक लफ़्ज़ आप जितनी जल्दी भूल जाएँ उतना अच्छा होगा- बेचारा. हमें मदद चाहिए तरस नहीं. ये मत भूलिए कि अगर आप उन्हें कुछ देंगी तो वो भी आपको बहुत कुछ देंगे. किसी का किसी पर एहसान नहीं. कोई बेचारा नहीं. ठीक?"
जब किसी विकलांग व्यक्ति को ज़रूरत से ज़्यादा तरस या मदद या बेचारगी से देखा जाता है तो उन्हें कैसा महसूस होता है, वही अहसास नसीर के चेहरे पर दिखता है.
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कुछ ऐसी ही कोशिश गुलज़ार ने फ़िल्म 'कोशिश' में की थी.
इस फ़िल्म में मुख्य किरदार निभा रहे संजीव कुमार और जया भादुड़ी, दोनों ही सुन और बोल नहीं सकते. किसी भी अन्य दंपती की तरह कैसे वो अपनी दुनिया बसाते हैं, 'कोशिश' इसी कोशिश की कहानी है.
फ़िल्म का एक सीन है जहाँ शादी के बाद रात को दूल्हा और दुल्हन दोनों कमरे में बैठे हैं. संजीव कुमार कागज़ की एक छोटी-सी चिट निकाल कर जया को देते हैं जिस पर लिखा होता है, ''मैं तुमसे प्यार करता हूँ.''
दुल्हन के लिबास में सजी जया भी कागज़ की एक पुड़िया लेकर आई हुई होती हैं जिस पर लिखा है, "पहली बार जो मैंने (शादी से) इनकार किया था, उसके लिए मुझे माफ़ कर देना. मैं ख़ुशकिस्मत हूँ कि मुझे आपके जैसा पति मिला है."
न कोई शब्द, न कोई स्पर्श. सिर्फ़ एक दूसरे के साथ का अहसास. शादी के बाद प्रेम का इज़हार करते दो लोगों के बीच ऐसा सुंदर दृश्य शायद ही किसी फ़िल्म में देखा गया होगा.
गुलज़ार अपनी इस फ़िल्म में ये बताने की कोशिश करते हैं कि दोनों विकलांग किरदार हैं, लेकिन वो भी हर किस्म के जज़्बात को उसी तरह शिद्दत से महसूस करते हैं जैसे बाकी लोग.
हालांकि 'कोशिश' फ़िल्म के आख़िर में संजीव कुमार नैतिकता के आधार पर अपने बेटे को 'ज़बरदस्ती' अपने बॉस की बेटी से शादी करने को कहते हैं क्योंकि वो बोल-सुन नहीं सकती.
विकलांग किरदार- न तरस खाएं, न महान मानें
निपुण मल्होत्रा अपनी संस्था के ज़रिए विकलांग लोगों के मुद्दों पर काम करते हैं. जन्म से ही उन्हें आर्थोग्रीपोसिस है. यानी उनकी बाजुओं और टाँगों की माँसपेशियाँ पूरी तरह विकसित नहीं हैं और वो व्हीलचेयर पर हैं.
निपुण इस बात के ख़िलाफ़ हैं कि फ़िल्मों में विकलांग किरदारों को इस तरह दिखाया जाए कि लोग उस पर तरस खाएं.
जबकि स्पर्श या 2024 में आई 'श्रीकांत' जैसी फ़िल्मों की ख़ास बात ये है कि ये विकलांग किरदारों पर न तरस खाती हैं न उन्हें महान बनाती हैं.
फ़िल्म श्रीकांत में मूल भूमिका निभाने वाले व्यक्ति एक उद्योगपति हैं, जो देख नहीं सकते. वो हुनरमंद तो हैं, पर थोड़े अहंकारी भी. स्पर्श का नसीर भी कई तरह के कॉम्पलेक्स से ग्रस्त है.
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फ़िल्म 'एल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है' ( 1980) में निर्देशक सईद मिर्ज़ा ने एक विकलांग महिला के नज़रिए को बख़ूबी दिखाया है जो कम ही देखने को मिलता है.
फ़िल्म का एक सीन है जहाँ स्मिता पाटिल एक दुकान में बतौर सेल्सवुमन काम करती हैं.
साड़ी ख़रीद रहा एक पुरुष ग्राहक लगातार स्मिता को ग़लत नज़र से देखता है और कहता है, "क्या बताऊँ आप मेरी बहन से कितना मिलती हैं बल्कि आप उससे बेहतर हैं. ये साड़ी पहनकर दिखाएंगी आप. देखता हूँ कितनी सुंदर लगती है मेरी बहन."
बिना उसके जवाब का इंतज़ार किए या सहमति के वो ग्राहक स्मिता के कंधों पर साड़ी डाल देता है.
जब स्मिता सीट से उठकर दुकान में चलने लगती हैं तो पुरुष ग्राहक को पता चलता है कि स्मिता ठीक से चल नहीं पातीं.
स्मिता ग्राहक से पूछती हैं, "मैं आपकी बहन जैसी हूँ न? और आपकी बहन मेरी जैसी? बिल्कुल मेरे जैसी? क्या मेरे जैसी लंगड़ी भी है? बड़ी सुंदर है न?"
सीन यहीं ख़त्म हो जाता है लेकिन ये बहुत असहज कर देने वाला सीन था. स्मिता का सवाल फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी आपका पीछा करता है.
सेरेब्रल पाल्सी वाले रोल में लिया असल किरदार
बहस इस बात पर भी होती रही है कि फ़िल्मों में कम विकलांग कलाकारों को ही काम करने का मौक़ा मिलता है.
2022 में विद्या बालन की फ़िल्म 'जलसा' में सूर्या कासीभटला नाम के जिस बाल कलाकार ने ये रोल किया था उन्हें असल ज़िंदगी में भी सेरेब्रल पाल्सी है.
सूर्या ने बीबीसी से बातचीत में कहा था, "मैं उम्मीद करता हूँ कि मुझे सेरेब्रल पाल्सी वाले बच्चे के किरदार में कास्ट किए जाने से मेरे जैसे उन लोगों को उम्मीद मिलेगी. वो भी सपना देख सकते हैं और एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री का हिस्सा बन सकते हैं. मुझे ख़ुशी है कि बॉलीवुड को विविध और इन्क्लूसिव इंडस्ट्री बनाने की कोशिश में मैंने भी अपना रोल निभाया.''
'सितारे ज़मीन पर' फ़िल्म में काम करने वाले एक्टर नमन मिश्रा को इनविज़िबल ऑटिज़्म है. वे कहते हैं कि वे हमेशा से एक्टर बनना चाहते थे.
फ़िल्म के एक्टर गोपीकृष्णन को डाउन सिंड्रोम है. वे कहते हैं, ''मैं स्टार बनना चाहता हूँ-स्टाइलिश.''
'हाउसफुल', 'गोलमाल'...कॉमेडी या लोगों का मज़ाकअक्सर इस बात को लेकर हिंदी फ़िल्मों की आलोचना भी होती है कि कॉमेडी की आड़ में विकलांग लोगों का मज़ाक बनाया जाता है या उनके किरदार को लेकर संवेदनशीलता नहीं बरती जाती.
हाउसफु़ल-3 की सारी कॉमेडी विकलांगता के इर्द गिर्द घूमती है. फ़िल्म में न देख पाने वाले व्यक्ति की एक्टिंग करने वाले रितेश देशमुख कहते हैं, ''मेरे दोस्त मुझे क़ानून बुलाते हैं क्योंकि क़ानून भी अंधा होता है.''
या फिर 'गोलमाल' में न बोल सकने वाले तुषार कपूर के दोस्त उनसे कहते हैं, ''जब उस लड़की को पता चलेगा कि तुम्हारा स्पीकर फटा हुआ है तो ये लड़की भी हाथ नहीं आएगी.''
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2024 में आई फ़िल्म 'आँख मिचौली' के ख़िलाफ़ निपुण मल्होत्रा ने केस किया था.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइन जारी कर कहा था कि फ़िल्मों में विकलांग लोगों को न तो स्टीरियोटाइप किया जाए और न ही मज़ाक बनाया जाए.
निपुण बताते हैं, "हमने ये जंग अभी जीती तो नहीं है पर सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन हमारे लिए हथियार की तरह हैं. पॉज़िटिव दिशा में बढ़ना है तो विकलांगता से जुड़ी फ़िल्में बनाते वक़्त, लिखते वक़्त ऐसे लोग शामिल हों जो इन मुद्दों की समझ रखते हों. सेंसर बोर्ड में भी विकलांग सदस्य शामिल होने चाहिए. आप देखिए कि जो लोग ठीक से बोल नहीं पाते, 'आँख मिचौली' में उन्हें अटकी हुई कैसेट कहा गया. विकलांग लोगों को रोज़मर्रा होने वाली दिक्कतों को फ़िल्मों में कॉमेडी के ज़रिए दिखाएँ, लेकिन उनके विकलांग होने का मज़ाक न बनाएं."
कॉमेडी और विकलांग किरदारों का मेल कैसे हो सकता है इसकी सादी सी मिसाल फ़िल्म 'कोशिश' में है.
दीना पाठक संजीव कुमार से उनका नाम पूछती हैं तो वो इशारों से बताने की कोशिश करते हैं.
जब दीना पाठक नहीं समझ पाती तो संजीव कुमार हरी मिर्च उठाकर उनके चरणों में रख देते हैं, क्योंकि उनका नाम हरिचरण है और इस पर दोनों ख़ूब हँसते हैं.
'सितारे ज़मीन पर में काम करना पुनर्जन्म की तरह'आमिर ख़ान की नई फ़िल्म 'सितारे ज़मीन पर भी' विकलांग बच्चों की कहानी है जो बास्केटबॉल खेलते हैं. कहानी में ह्यूमर है, इमोशन है और कुछ सवाल भी.
फ़िल्म में कोच बने आमिर ख़ान परेशान होकर सवाल पूछते हैं कि ''मैं बास्केटबॉल टीम कैसे बनाऊं. टीम तो नॉर्मल लोगों की बनती है.''
तब उनके साथी जवाब देते हैं, ''सबका अपना-अपना नॉर्मल होता है. आपका नॉर्मल आपका, उनका नॉर्मल उनका."
और जहाँ तक फ़िल्म में काम करने का मौक़ा मिलने की अहमियत की बात है, तो आप 'सितारे ज़मीन पर' के एक्टर आरूश दत्ता की बात पर ग़ौर कर सकते हैं.
वो कहते हैं कि इस फ़िल्म में काम करने का अनुभव उनके लिए पुनर्जन्म की तरह है.
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