प्रदूषण की धुंध में घिरी नेपाल की राजधानी काठमांडू में आजकल राजशाही बनाम संघवाद पर चर्चा तेज़ है. बाहर से ये शहर शांत नज़र आता है, लेकिन लोगों से बात करो, तो लगता है कि यहाँ सरकार के ख़िलाफ़ निराशा है.
एक ओर जहाँ राजशाही के समर्थन में कुछ लोग आंदोलन कर रहे हैं, वहीं बड़ा तबका ऐसा भी है, जो सरकार से निराश तो है लेकिन वो राजशाही की वापसी के पक्ष में नहीं.
मंगलवार आठ अप्रैल को राजशाही के समर्थन में रैली के लिए राजधानी के बल्खू इलाक़े में हाथ में नेपाली झंडा और पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह की तस्वीर लिए लोगों की भीड़ जमा हुई.
सड़क के एक तरफ़ प्रदर्शनकारियों की भीड़ थी, तो दूसरी तरफ़ ट्रैफ़िक सामान्य रफ़्तार से गुज़र रहा था. राजशाही ख़त्म कर साल 2008 में लोकतांत्रिक गणराज्य बने नेपाल को हिंदू राष्ट्र बनाने और राजशाही की वापसी के लिए आवाज़ें उठीं हैं.
हालाँकि आंदोलन से जुड़ी रैलियों के बाहर इसका असर बहुत ज़्यादा नज़र नहीं आता. नेपाल के अन्य इलाक़ों में भी राजशाही समर्थक आंदोलन सीमित ही है और कोई व्यापक विरोध नहीं हुआ है.
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नेपाल के इतिहास में अधिकतर समय राज परिवार का शासन रहा. 1846 से 1951 तक राणा परिवार के प्रधानमंत्रियों की सत्ता रही और शाही परिवार प्रतीकात्मक भूमिका तक सीमित रहा.
देश में लोकतंत्र स्थापित करने का पहला प्रयास 1951 में हुआ, जब नेपाली कांग्रेस के लोकतंत्र समर्थक आंदोलन के कारण राजा त्रिभुवन की मदद से राणा परिवार को सत्ता से हटा दिया गया.
1959 में नेपाल में पहले चुनाव हुए और बीपी कोइराला देश के पहले प्रधानमंत्री बने. नेपाल में लोकतंत्र का ये प्रयोग ज़्यादा दिन नहीं चल सका.
1960 में त्रिभुवन के बेटे महेंद्र बीर विक्रम शाह देव ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करते हुए सभी लोकतांत्रिक संस्थानों को भंग कर दिया. 1960 से 1990 तक नेपाल में राजा का सीधा शासन रहा और देश में पंचायत व्यवस्था प्रभावी रही. इस दौरान राजनीतिक दल प्रतिबंधित रहे.
जन आंदोलन के बाद 1990 में राजशाही को संवैधानिक रूप दिया गया. हालाँकि लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयास होते रहे. माओवादी आंदोलन के दौरान 1990 से 2006 तक गृहयुद्ध जैसे हालात रहे. हज़ारों लोगों की जानें गईं.
जून 2001 में नेपाल के शाही परिवार के अधिकतर लोगों की संदिग्ध परिस्थितियों में हत्या कर दी गई. ये घटनाक्रम शाही परिवार के इतिहास में अहम मोड़ साबित हुआ और देश में राजसत्ता का पतन शुरू हुआ.
इस हत्याकांड में तत्कालीन राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव भी मारे गए. इसके बाद उनके छोटे भाई ज्ञानेंद्र शाह ने गद्दी संभाली.
2005 में ज्ञानेंद्र शाह ने लोकतंत्र समाप्त कर सत्ता को सीधे अपने हाथों में ले लिया. 2006 में गणतंत्र की स्थापना के लिए दूसरा जन आंदोलन खड़ा हुआ और आख़िरकार देश में साल 2008 में राजा को सत्ता से हटा दिया गया.
सितंबर 2015 में नेपाल ने धर्मनिरपेक्ष संविधान अपनाया. देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान समाप्त हो गई और मौजूदा संघीय व्यवस्था लागू हुई.

अभी नेपाल में गणतांत्रिक राज्य की स्थापना को 17 साल ही हुए हैं. संविधान को लागू हुए 10 साल भी पूरे नहीं हुए है. इस दौरान नेपाल में 14 सरकारें बदल गई हैं.
नेपाल की कोई भी चुनी हुई सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी है. देश में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल हमेशा बना रहा है.
2015 के बाद से प्रधानमंत्री की कुर्सी नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के केपी शर्मा ओली, नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी सेंटर) के पुष्प कमल दाहाल यानी प्रचंड और नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देऊबा के बीच घूमती रही है.
अभी केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने पिछले साल जुलाई में सत्ता संभाली थी. ओली अभी शेर बहादुर देऊबा की नेपाली कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार चला रहे हैं. उनसे पहले प्रचंड क़रीब दो साल तक प्रधानमंत्री रहे.
नेपाल के कई लोगों को लगता है कि राजनीतिक अस्थिरता की वजह से देश का विकास नहीं हो पाया और इसी वजह से उनमें निराशा है.
पेशे से सीए और नेपाली छात्र कांग्रेस के नेता दिवाकर पांडे कहते हैं, "नेपाल के लोगों में एक निराशा है. लोकतंत्र की स्थापना के वक़्त विकास और सुधार के जो वादे किए गए थे, आम लोगों को लगता है वो पूरे नहीं हुए. आज नेपाल आर्थिक संकट से जूझ रहा है. सरकार में लोगों का विश्वास कम हो रहा है."
दिवाकर पांडे को लगता है कि देश में राजशाही के समर्थन में जो आंदोलन खड़ा हो रहा है, उसकी वजह यही निराशा है. पांडे कहते हैं, "देश में राजशाही समर्थकों की तादाद बहुत कम है. लेकिन आम लोग त्रस्त हैं. इसी वजह से हमें प्रदर्शन देखने को मिल रहे हैं."
हालांकि दिवाकर ज़ोर देकर कहते हैं, "सरकार से नाराज़गी का मतलब राजशाही का समर्थन नहीं है. जो लोग राजसत्ता की वापसी चाहते हैं, उनकी संख्या बेहद सीमित है."
हिंदू राष्ट्र की पहचानप्राचीन पाटन क्षेत्र के एक टैक्सी स्टैंड के पास अधिकतर ड्राइवर राजसत्ता के लिए आंदोलन का समर्थन करते हुए एक जैसे विचार ज़ाहिर करते हैं.
यहाँ अधिकतर लोग कहते हैं, "कई मंत्री मिलकर देश को लूटें, उससे अच्छा है एक राजा का शासन हो."
नेपाल में ऐसे लोग भी हैं, जो देश की हिंदू राष्ट्र की पहचान तो चाहते हैं, लेकिन राजसत्ता की वापसी नहीं चाहते.
पशुपति नाथ मंदिर से कुछ ही दूर एक ढाबा चलाने वाले कहते हैं, "नेपाल में अधिकतर लोग हिंदू हैं. ये देश हिंदू राष्ट्र रहा है. हम चाहते हैं कि फिर से देश का गौरव लौटे, लेकिन मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था ही सही है."
बल्खू में हो रही रैली में हिंदूवादी विचार रखने वाले भी कई लोग थे.
एक युवा प्रदर्शनकारी अभिषेक जोशी ने कहा, "राजा और हिंदू राष्ट्र दोनों आपस में जुड़े हैं. राजा हिंदू राष्ट्र के अभिभावक हैं. इसलिए, वे हमारी संस्कृति और हमारे धर्म के अभिभावक हैं."
प्रदर्शनकारी सागर खड़का नेपाल में गणतंत्र की स्थापना को विदेशी साज़िश के रूप में देखते हैं. खड़का कहते हैं, "जो परंपरा से चली आ रही राज संस्था थी, उसे विदेशियों के एजेंडे पर चलने वाले लोगों ने अवैध तरीक़े से हटा दिया. यहाँ के मूल्य, परंपरा और संस्कृति नष्ट हो गई. इस देश का राजनीतिक सिद्धांत ही गड़बड़ हो चुका है."
खड़का कहते हैं, "नेपाल विश्व का एकमात्र हिंदू राष्ट्र था. आज ईसाइयों के देश हैं, मुसलमानों के देश हैं, यहूदियों का अपना राष्ट्र है, लेकिन हमारा हिंदू राष्ट्र हमसे छीन लिया गया है. हम अपने पुराने गौरव को लौटाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं."
प्रदर्शन में शामिल कई लोग याद दिलाते हैं कि नेपाल विश्व का एकमात्र हिंदू राष्ट्र था और इस पहचान को हिंदुओं से छीन लिया गया है. हालाँकि, इस प्रदर्शन स्थल के बाहर शहर के अन्य इलाक़ों में ना ही सरकार का कोई खुला विरोध नज़र आता है और ना ही राजशाही का समर्थन.
कई लोग हिंदू राष्ट्र तो चाहते हैं, लेकिन राज परिवार की वापसी नहीं. पशुपति नाथ मंदिर में दर्शन करने आ रहे कुछ लोग भी ऐसी ही राय ज़ाहिर करते हैं.
यहाँ आया युवाओं का एक समूह कहता है- हमें अपना हिंदू राष्ट्र चाहिए. लेकिन राजनीतिक व्यवस्था के सवाल पर ये युवा कहते हैं- सही तो लोकतंत्र ही है, लेकिन इसमें सुधार होना चाहिए.
'अब नेपाल में राजशाही की गुंजाइश नहीं'नेपाल की नेशनल असेंबली के चेयरमैन नारायण दाहाल जनता के असंतोष को तो स्वीकार करते हैं, लेकिन मानते हैं कि नेपाल में राजशाही की वापसी की गुजांइश नहीं है.
दाहाल पूर्व प्रधानमंत्री पुष्प कमल दाहाल के चचेरे भाई हैं और माओवादी आंदोलन के दौरान सक्रिय रहे हैं. दाहाल कहते हैं, "नेपाल के लोगों ने आंदोलन से ही राजसत्ता को उखाड़ फेंका था, अब नेपाल में राजशाही की गुंजाइश नहीं है."
हालाँकि दाहाल ये मानते हैं कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था से लोगों में निराशा ज़रूर है.
वो कहते हैं, "हमें ये अहसास हो रहा है कि हमने शायद कुछ तो ग़लत किया होगा, जो लोग हमसे असंतुष्ट हैं. हमारे ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं. लेकिन हमारे ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे सभी लोग राजशाही के समर्थन में हैं, ऐसा नहीं है."
दाहाल कहते हैं, "ये लोग गणतंत्र समाप्त करने के लिए नहीं, बल्कि सुधार के लिए आवाज़ उठा रहे हैं. राजनीतिक दलों को भी देखना होगा कि उनसे कहाँ ग़लती हुई और क्या-क्या सुधार करने चाहिए."

सात प्रांतों में बँटा नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य है. प्रधानमंत्री का चुनाव सांसदों के बहुमत के आधार पर होता है. पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह को फिर से सत्ता में लाने के लिए आंदोलन की अगुआ राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी इसे बदलना चाहती है.
नेपाल की प्रतिनिधि सभा (संसद) में 275 सदस्य हैं. इसमें 165 सीधे चुनाव से निर्वाचित किए जाते हैं और बाक़ी 110 समानुपातिक व्यवस्था से आते हैं.
राजशाही का समर्थन कर रही राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी के सिर्फ़ 14 सदस्य हैं, जिनमें से सात ही निर्वाचित हैं. पार्टी के महामंत्री शरद राज पाठक कहते हैं, "हम राष्ट्र प्रमुख के रूप में राजा को देखना चाहते हैं. हिंदू राष्ट्र की पहचान वापस चाहते हैं."
पाठक कहते हैं, "हम इस संघीय व्यवस्था को ख़त्म करना चाहते हैं. नेपाल की स्थिरता के लिए सीधे जनता के वोट से चुना जाने वाला प्रधानमंत्री बेहतर होगा. हम सांसदों के मंत्री बनने की व्यवस्था भी ख़त्म करना चाहते हैं."
आंदोलन में कितनी जान?राजशाही की वापसी की मांग ने हाल के महीनों में ज़ोर पकड़ा है. पिछले महीने जब पूर्व राजा ज्ञानेंद्र शाह पोखरा से काठमांडू लौटे, तो एयरपोर्ट पर हज़ारों लोगों की भीड़ ने उनका स्वागत किया.
इसके बाद 28 मार्च को हुआ प्रदर्शन हिंसक हो गया. इसमें बड़े पैमाने पर आगजनी हुई और दो लोगों की जान चली गई. एक पत्रकार की भी मौत हुई.
इस घटना के बाद सरकार ने कार्रवाई की. प्रमुख नेताओं को हिरासत में रखा गया है, जबकि ज्ञानेंद्र शाह की ओर से जन कमांडर बनाए गए दुर्गा परसाई भूमिगत हो गए.
अभी इस आंदोलन में तेज़ी नज़र नहीं आ रही है, लेकिन आंदोलन का नेतृत्व कर रही राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी आगे आंदोलन को और तेज़ करने की चेतावनी दे रही है.
शरद पाठक कहते हैं, "जिस तरह से लोगों का आक्रोश बढ़ रहा है. सरकार को वार्ता के ज़रिए स्थिति संभालनी होगी. नहीं तो कुछ भी हो सकता है. जिस तरह से बांग्लादेश और श्रीलंका के नेता भागे, नेपाल के नेताओं को भी भागना पड़ेगा. उन्हें कहीं जगह भी नहीं मिल पाएगी."
युवा लोकतंत्रनेपाल सरकार का मानना है कि राजा की वापसी की मांग करने वाले लोग पूरे देश का प्रतिनिधित्व नहीं करते.
देश के क़ानून मंत्री और नेपाली कांग्रेस के नेता अजय चौरसिया कहते हैं, "राजा को जनता ने ही हटाया था. लंबा आंदोलन हुआ, तब राजा सत्ता से गए. संविधान सभा ने इस देश में गणतंत्र स्थापित किया है. जब राजा को हटाया गया था, तब भी राजावादी लोगों को ये पसंद नहीं था. ये मुठ्ठी भर लोग हैं, जो सत्ता का आनंद लेते रहे और अब फिर से देश की सत्ता पर क़ब्ज़ा करना चाहते हैं."
अजय चौरसिया कहते हैं कि जनता को भड़काने वाले लोगों को हिरासत में लिया गया है और जो फ़रार हैं, उन्हें पुलिस खोज रही है. चौरसिया कहते हैं, "अहिंसक आंदोलन का अधिकार लोकतंत्र में सभी को है. लेकिन कोई हिंसा करेगा, देश को जलाने का प्रयास करेगा, तो सरकार ख़ामोश नहीं बैठेगी."
विकास ना होने और लोगों में नाराज़गी के सवाल पर चौरसिया कहते हैं, "नेपाल में नया संविधान लागू हुए अभी 10 साल भी नहीं हुए हैं. देश ने 2015 में विनाशकारी भूकंप झेला. इसके बाद कई और चुनौतियाँ आईं. सरकार के पास संसाधन सीमित हैं, अभी नेपाल युवा लोकतंत्र है."

नेपाल में एक बड़ी आबादी भारत की सीमा से सटे इलाक़ों में बसे मधेशी लोगों की भी है. मधेश में संघीय व्यवस्था की स्थापना के लिए लंबा संघर्ष हुआ.
जनमत पार्टी के प्रवक्ता शरद यादव कहते हैं, "राजसत्ता को ख़त्म करने और संघ स्थापित करने के लिए मधेश के लोगों ने लंबा संघर्ष किया लेकिन इस व्यवस्था में जो अधिकार राज्यों को मिले हैं, वो सीमित हैं. अभी भी देश के राजनीतिक दल यही चाहते हैं कि काठमांडू में सिंह दरबार से शासन चले लेकिन ऐसा नहीं होगा. असली ताक़त जनता के हाथ में होनी चाहिए. हम देश में संघीय व्यवस्था को और मज़बूत करने के लिए आंदोलन करेंगे."
शरद यादव कहते हैं, "देश में इस समय राजनीतिक व्यवस्था से लोग निराश हैं और यही निराशा आंदोलन में नज़र आ रही है. इसका ये मतलब नहीं है कि देश राजसत्ता की वापसी चाहता है."
नेपाल के पूर्व मंत्री और भारत में राजदूत रहे निलांबर आचार्य कहते हैं कि नेपाल राज परिवार के सवाल का समाधान कर चुका है.
निलांबर आचार्य कहते हैं, "लोग, जन आंदोलन और संविधान सभा राजशाही के सवाल का समाधान कर चुके हैं. ये जो हंगामा अभी हो रहा है, इसके भविष्य के लिए कोई मायने नहीं हैं. मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था को अस्थिर करने के उनके कुछ राजनीतिक मक़सद हो सकते हैं, लेकिन नेपाल में राजशाही वापस आने वाली नहीं है."
हालाँकि आचार्य ये ज़रूर कहते हैं कि राजनीतिक व्यवस्था से निराश लोग बदलाव चाहते हैं और ये बदलाव क्या होगा, ये देश को तय करना होगा.
धीमी है विकास की रफ़्तारनेपाल में राजशाही की वापसी और हिंदू राष्ट्र के लिए आंदोलन ने कुछ लोगों की भावनाओं को जगाया है लेकिन यहाँ असली सवाल विकास का नज़र आता है.
नेपाल की अर्थव्यवस्था की रफ़्तार धीमी है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) के मुताबिक़ वर्ष 2024 में नेपाल में विकास दर 3.1 प्रतिशत थी.
नेपाल की कुल जीडीपी का क़रीब एक चौथाई हिस्सा विदेशों में रह रहे नेपाली लोगों से आता है. युवा देश छोड़कर जाने के मौक़े तलाश रहे हैं. काठमांडू में जगह-जगह अंग्रेज़ी के अलावा कोरियन, जापानी और चीनी भाषा सिखाने के केंद्र नज़र आते हैं.
अधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक़ रोज़ाना 2000 से अधिक युवा देश छोड़ रहे हैं. बीते एक साल में ही पाँच लाख से अधिक युवा नेपाल छोड़कर गए.
काठमांडू एयरपोर्ट पर देश छोड़ कर जा रहे युवाओं की भीड़ नज़र आती है. इमिग्रेशन की लाइन में लगा एक युवा कहता है, "अगर नेपाल में सब कुछ ठीक होता, तो क्या मैं देश छोड़कर जाता?"
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़ रूम की ओर से प्रकाशित
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