अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मंगलवार को सऊदी अरब पहुंचे. वो सऊदी अरब, क़तर और यूएई की चार दिवसीय यात्रा पर निकले हैं. ये ट्रंप के दूसरे कार्यकाल की पहली बड़ी कूटनीतिक यात्रा है.
मंगलवार को उनकी मुलाक़ात सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान से हुई. साथ ही अमेरिका और सऊदी अरब के बीच 142 अरब डॉलर का रक्षा बिक्री समझौता हुआ है.
अमेरिका ने इस समझौते को 'इतिहास का सबसे बड़ा रक्षा बिक्री समझौता' कहा है. व्हाइट हाउस का कहना है कि सऊदी अरब ने अमेरिका में 600 अरब डॉलर का "निवेश करने की प्रतिबद्धता" जताई है.
इस दौरे पर पूरी दुनिया की नज़र है और इसे कई नज़रिए से देखा जा रहा है, ये भी पूछा जा रहा है कि ट्रंप ने अपनी पहली कूटनीतिक यात्रा के लिए मिडिल ईस्ट को ही क्यों चुना, साथ ही इससे इसराइल के नज़रिए से कैसे देखा जा सकता है.
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राष्ट्रपति ट्रंप ने अपनी पहली कूटनीतिक यात्रा के लिए मिडिल ईस्ट को ही क्यों चुना, तो इसके कई कारण बताए जाते हैं.
सबसे बड़ा कारण ये है कि, जैसा हम सब जानते हैं और यह ट्रंप की पहली प्रेसिडेंसी में भी देखा गया था कि वो बहुत ही ट्रांज़ैक्शनल यानी सौदा करने वाले राष्ट्रपति हैं.
उनके लिए ऐसी डील करना आसान होता है जहां उन्हें बिल्कुल स्पष्ट पता हो कि उन्हें क्या मिलेगा या कहें कि अमेरिकी जनता को क्या फ़ायदा होगा.
वो खाड़ी के जिन देशों की यात्रा कर रहे हैं, वहां से अमेरिका में विशेष तौर पर टेक्नोलॉजी सेक्टर में बड़े पैमाने पर निवेश आने की उम्मीद है.
सऊदी अरब पहले ही अमेरिका में 600 अरब डॉलर निवेश की प्रतिबद्धता जता चुका है. यूएई से तकनीकी सहयोग की बातें चल रही हैं और क़तर भी लगभग इसी श्रेणी में आता है.
तो एक 'ट्रांज़ैक्शनल प्रेसिडेंट' के लिए यह क्षेत्र सबसे कारगर है. ख़ास बात ये भी है कि ट्रंप की हमेशा यही लाइन रही है कि "जो भी हम करते हैं, वो 'अमेरिका फ़र्स्ट' को ध्यान में रखकर करते हैं."
कुल मिलाकर इस यात्रा में जियोपॉलिटिक्स (भू-राजनीति) को पीछे रखा गया है और व्यापारिक और आर्थिक एजेंडा आगे रखा गया है. इसलिए यह काफ़ी तार्किक लगता है कि ट्रंप ने अपनी दूसरी पारी की शुरुआत मिडिल ईस्ट से की.
सवाल ये भी है कि खाड़ी के देश इस यात्रा को कैसे देख रहे हैं तो, बिल्कुल स्पष्ट है कि ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में यह क्षेत्र यह समझता है कि टेक्नोलॉजी और एआई जैसी चीज़ों में अगर उन्हें अमेरिका से लाभ चाहिए, तो अमेरिकी बाज़ार में उन्हें अधिक से अधिक निवेश करना होगा.
इस क्षेत्र में एआई पॉवर बनने की होड़ है, और ट्रंप की यात्रा उन्हें उस दिशा में आगे बढ़ने का एक मौक़ा देती है.
इसके अलावा, वे यह भी चाहते हैं कि ट्रंप इसराइल को एक सीमा में रखें ताकि इस क्षेत्र का जो नाज़ुक संतुलन है, वह बना रहे.
ट्रंप के ज़रिए इस क्षेत्र को लगता है कि जो कोशिशें पहले भी हो रही थीं, उन्हें अब एक निर्णायक दिशा में धकेला जा सकता है. यह दौरा उस दिशा में अगला क़दम माना जा रहा है.
इस संदर्भ में ग़ज़ा के हालात भी अहम हो जाते हैं. मानवीय कॉरिडोर या तो बन ही नहीं पा रहा है या बनकर टूट जा रहा है और इससे इलाक़े के लोग चिंतित हैं. इसका असर इस यात्रा की चर्चाओं पर भी पड़ सकता है.
हालांकि ट्रंप के दोबारा राष्ट्रपति बनने के बाद जो तमाम चर्चाएं शुरू हुई थीं, वे अब 'बैकबर्नर' पर चली गई हैं और फिलहाल फोकस पुनर्निर्माण पर है.
बीते दो-तीन दिनों में वॉशिंगटन और तेल अवीव से जो ख़बरें आई हैं, उनसे स्पष्ट होता है कि ट्रंप प्रशासन और इसराइल अभी बिल्कुल एक पेज पर नहीं हैं, और चूंकि ट्रंप अभी खाड़ी देशों के दौरे पर हैं, तो वहीं के आपसी हितों और आपसी सहमति को आगे बढ़ाने पर ज़ोर रहेगा.
ऐसा नहीं लगता कि अगले दो-तीन दिनों में ग़ज़ा को लेकर कोई बड़ा एलान होगा.
हाँ, जब दोनों पक्ष यानी अमेरिका और खाड़ी के तीनों देश साथ बैठेंगे, तो इस क्षेत्र के लिए दीर्घकालीन समाधान पर ज़रूर कुछ चर्चा हो सकती है.
शायद जब ट्रंप यात्रा के दूसरे या तीसरे चरण में आगे बढ़ेंगे, तब इस पर कोई सफाई या अगला क़दम सामने आए.
फिलहाल ऐसा नहीं लगता कि पहले दो दिनों में इस पर कोई बहुत बड़ी बातचीत होने वाली है.
ये बात भी दिलचस्प है कि ट्रंप इसराइल नहीं जा रहे हैं, लेकिन इसे तटस्थ नज़रिए से देखें तो ट्रंप ने अमेरिकी राष्ट्रपतियों के पारंपरिक दौरे की दिशा को उलट दिया है.
आमतौर पर अमेरिकी राष्ट्रपति सबसे पहले इसराइल जाते थे और उसके बाद बाकी देशों का दौरा करते थे. लेकिन ट्रंप ने इसका उल्टा किया है.
हालांकि, इसकी एक साफ़ झलक 'ट्रांज़ैक्शनल प्रेसिडेंसी' में मिलती है, उन्हें सबसे पहले आर्थिक और लेन-देन की बातें समझ में आती हैं. बाकी चीज़ों को वो टाल देते हैं.
तो ऐसा लगता है कि नेतन्याहू यही संदेश लेंगे कि ट्रंप के लिए इकोनॉमिक या कारोबारी हित पहले हैं, बाकी चीज़ें उसके बाद.
पिछले दो-तीन दिनों की जो 'मैसेजिंग' आई है, उससे भी यही संकेत मिला है कि ट्रंप का वह 'ब्लाइंड सपोर्ट' जो उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान या उसके तुरंत बाद इसराइल को दिया था, वो इस वक़्त नज़र नहीं आ रहा है.
क्योंकि अब ट्रंप की नज़र मिडिल ईस्ट के दूसरे देशों पर भी है, और उनके साथ भी उनकी लंबे समय की उम्मीदें जुड़ी हुई हैं, वो एक देश की आकांक्षाओं को 20–25 देशों के हितों के बराबर रखकर नहीं देख रहे.
अगर इस यात्रा में तीसरा या चौथा दिन इसराइल होता, तो शायद पूरी बातचीत का टोन ही बदल जाता.
लेकिन चूंकि इस यात्रा में सिर्फ तीन खाड़ी देश शामिल हैं, इसलिए फिलहाल बातचीत पूरी तरह अमेरिका और इन खाड़ी देशों के आर्थिक और व्यापारिक रिश्तों पर केंद्रित है.

ऐसी भी चर्चाएं हैं कि इस दौरे पर भारत-पाकिस्तान के बीच जो कुछ भी हो रहा है, उसकी भी चर्चा हो सकती है. लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि इस मुद्दे की बहुत ज़्यादा बातचीत होगी.
ट्रंप ने हवाई जहाज में बैठने से पहले ही इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि वह मुद्दा अब उनके एजेंडे में नहीं है.
सऊदी अरब में ट्रंप रुकेंगे और सऊदी-भारत रिश्ते अच्छे रहे हैं. यूएई के साथ भी भारत के रिश्ते बहुत मज़बूत हैं. क़तर से भी भारत के संबंध कमोबेश ठीक-ठाक हैं.
लेकिन ये सभी द्विपक्षीय संबंध हैं और जब आप किसी तीसरे देश की यात्रा पर होते हैं, तो उन पर टिप्पणी करने की गुंजाइश नहीं होती.
हां, इस पूरे क्षेत्र में हाल ही में एक तरह का टेंशन उभरा था, लेकिन उसे संभाल लिया गया है.
अब तक इंडिया-मिडल ईस्ट-यूरोप इकोनॉमिक कॉरिडोर (आईएमईसी) को लेकर भी कोई ठोस प्रगति नहीं हुई है.
पिछले बहुराष्ट्रीय सम्मेलन के बाद से इस संबंध में कोई बड़ी घोषणा सामने नहीं आई.
हो सकता है जब ट्रंप यूएई पहुंचें, तो इस कॉरिडोर पर कुछ घोषणा हो. लेकिन अभी के हालात देखकर नहीं लगता कि भारत-पाकिस्तान पर कोई बड़ा फोकस इस यात्रा में रहने वाला है.
(बीबीसी संवाददाता प्रेरणा से बातचीत के आधार पर)
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