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122 फीट Vijay Stambh की हर मंजिल सुनाती है राजपूतों की शौर्यगाथा, वीडियो में देखे इस विजय स्मारक का गौरवशाली इतिहास

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राजस्थान की वीर भूमि चित्तौड़गढ़ न केवल ऐतिहासिक लड़ाइयों का गवाह रहा है, बल्कि यह राजपूतों की बहादुरी, बलिदान और आत्मगौरव की परंपरा का भी प्रतीक है। चित्तौड़गढ़ किले में स्थित विजय स्तंभ (Victory Tower), जिसे कीर्ति स्तंभ भी कहा जाता है, आज भी उसी अद्भुत शौर्यगाथा की कहानी कहता है, जिसे वीर राजपूतों ने अपने खून से लिखा था।विजय स्तंभ केवल एक स्थापत्य चमत्कार नहीं, बल्कि यह एक जीवंत इतिहास है, जो सदियों से भारत की संस्कृति, युद्धनीति और स्वाभिमान का प्रतीक बना हुआ है। हर मंज़िल, हर सीढ़ी और हर नक्काशी में छिपी है वह गाथा, जिसे शब्दों में पिरोना आसान नहीं, लेकिन जानना हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है।


निर्माण का उद्देश्य और इतिहास
विजय स्तंभ का निर्माण 1442 से 1449 ई. के बीच मेवाड़ के राजा महाराणा कुम्भा द्वारा कराया गया था। इस स्तंभ का निर्माण गुजरात के सुल्तान महमूद खिलजी पर मिली विजय के उपलक्ष्य में हुआ था। यह स्तंभ न केवल एक युद्ध विजय की निशानी है, बल्कि मेवाड़ की अस्मिता और असाधारण स्थापत्य कला का भी उदाहरण है।इसका निर्माण वास्तुकला की मारू-गुर्जर शैली में किया गया है, जो उस समय की परिपक्व शिल्पकला को दर्शाता है। स्तंभ की ऊंचाई लगभग 122 फीट है और इसमें कुल 9 मंजिलें हैं, जिन्हें सीढ़ियों के ज़रिए तय किया जा सकता है।

हर मंज़िल पर राजपूती शौर्य का चित्रण
विजय स्तंभ की हर मंज़िल जैसे वीरता की एक नई परत खोलती है। जब कोई व्यक्ति इसकी संकरी सीढ़ियों पर चढ़ना शुरू करता है, तो हर मोड़ पर पत्थरों पर उकेरी गई छवियाँ एक कहानी बयां करती हैं।इन दीवारों पर उकेरे गए हिंदू देवी-देवताओं, योद्धाओं, नर्तकियों और पौराणिक दृश्यों के चित्र एक ऐसी दुनिया में ले जाते हैं जहाँ धर्म, युद्ध और संस्कृति का अद्भुत संगम होता है। खासकर आखिरी मंज़िल पर पहुंचते-पहुंचते, एक अजीब-सी ऊर्जा और गर्व का अनुभव होता है, मानो किसी स्वर्णिम इतिहास की गवाही ली जा रही हो।

राजपूती गौरव और विजय स्तंभ
राजपूतों के लिए विजय स्तंभ सिर्फ एक स्थापत्य धरोहर नहीं, बल्कि उनकी आत्मा का प्रतीक है। यह स्तंभ उन्हें हर समय याद दिलाता है कि शौर्य, धर्म और मातृभूमि के लिए कुछ भी बलिदान करना पड़ सकता है। महाराणा कुम्भा के शासनकाल में मेवाड़ ने जो वीरता दिखाई, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बन गई।इतिहासकार मानते हैं कि विजय स्तंभ का निर्माण एक रणनीतिक और मनोवैज्ञानिक कदम भी था। यह शत्रु को यह जताने का तरीका था कि मेवाड़ को हराना असंभव है, और साथ ही यह अपनी प्रजा के बीच आत्मगौरव और राष्ट्रभक्ति की भावना बनाए रखने का एक साधन भी था।

विजय स्तंभ की वास्तुकला और तकनीकी विशेषताएँ
विजय स्तंभ पूरी तरह से रेत-पत्थर (सैंडस्टोन) से बना हुआ है। इसकी भीतरी संरचना में 157 सीढ़ियाँ हैं, जो ऊपर तक पहुंचने का मार्ग बनाती हैं। प्रत्येक मंज़िल को बाहर से बालकनीनुमा झरोखों से सजाया गया है, जिससे किले और आसपास का अद्भुत नज़ारा देखा जा सकता है।इसकी दीवारों पर संस्कृत में शिलालेख खुदे हुए हैं, जो तत्कालीन समय की सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक स्थिति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। वहीं, स्तंभ के शीर्ष भाग पर बने दशावतारों और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ, उस समय की धार्मिक निष्ठा को दिखाती हैं।

पर्यटन और सांस्कृतिक महत्व
आज विजय स्तंभ न केवल इतिहास प्रेमियों के लिए एक तीर्थ बन चुका है, बल्कि यह चित्तौड़गढ़ के पर्यटन का प्रमुख केंद्र भी है। हर साल हजारों पर्यटक देश-विदेश से यहां आते हैं, जो न सिर्फ इसकी भव्यता से चकित होते हैं बल्कि राजपूत शौर्य से भी अभिभूत हो जाते हैं।राजस्थान सरकार द्वारा इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) इसके रखरखाव की ज़िम्मेदारी निभाता है। रात के समय विजय स्तंभ पर की गई लाइटिंग इसकी भव्यता को और बढ़ा देती है, और यह एक दृश्यात्मक अनुभव में बदल जाता है।

विजय स्तंभ से मिलने वाली प्रेरणा
आज के दौर में जब देशभक्ति और इतिहास की भावना कहीं खोती जा रही है, ऐसे में विजय स्तंभ हमें उस जज़्बे की याद दिलाता है, जिसने भारत को बार-बार संघर्षों के बावजूद जीवित रखा। यह स्तंभ हमें यह सिखाता है कि आत्मसम्मान, वीरता और धर्म की रक्षा के लिए कभी पीछे नहीं हटना चाहिए।

निष्कर्ष:
चित्तौड़गढ़ का विजय स्तंभ सिर्फ एक ऐतिहासिक इमारत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा का प्रतीक है। यह हर पीढ़ी को यह याद दिलाता है कि जब इरादे अडिग हों और हौसले बुलंद, तो कोई भी शक्ति एक राष्ट्र या एक संस्कृति को नहीं मिटा सकती।

हर मंज़िल पर राजपूतों के शौर्य की गूंज है, हर पत्थर पर वीरता की छाप है — और यही है विजय स्तंभ की सबसे बड़ी विजय।

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