बिहार की राजधानी पटना से सटे मगध इलाके को इतिहास और संस्कृति के लिए जाना जाता है। लेकिन इस इलाके की एक ऐसी कहानी है, जो दिल को छू लेती है। यहां के माड़ी गांव में कोई मुस्लिम आबादी नहीं है, फिर भी मस्जिदें आज भी जिंदा हैं और हर दिन अजान की आवाज गूंजती है। ये मस्जिदें सिर्फ इमारतें नहीं, बल्कि सामाजिक एकता और भाईचारे की मिसाल हैं।
सदियों पुरानी मस्जिद, गांव वालों का प्यारमाड़ी गांव की मस्जिदें कई दशकों पुरानी हैं। इनकी विरासत को बचाने के लिए गांव के आम लोग, जिनमें कई हिंदू भी शामिल हैं, आगे आए हैं। ये लोग दिहाड़ी मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालते हैं, लेकिन मस्जिद की देखभाल का जिम्मा उन्होंने खुद उठाया है। उनकी मेहनत और लगन देखकर हर कोई हैरान है।
अजय पासवान: मस्जिद के सच्चे सेवकपटना से करीब 80 किलोमीटर दूर नालंदा जिले के बिहारशरीफ में माड़ी गांव है। चौड़े रास्तों से होते हुए जब आप गांव की उबड़-खाबड़ सड़कों पर पहुंचते हैं, तो एक 200 साल पुरानी मस्जिद का गुंबद दूर से ही दिखाई देता है। यहां आपको मिलते हैं अजय पासवान, जो मस्जिद के बरामदे में झाड़ू लगाते हुए मुस्कुराते हैं। वह कहते हैं, “मेरा दिल कहता है कि मस्जिद की सेवा करूं। खाना न खाएं, लेकिन ये काम जरूर करेंगे।”
अजय के साथ उनके दो दोस्त बखौरी बिंद और गौतम प्रसाद भी हैं। ये तीनों मजदूरी करते हैं, लेकिन मस्जिद की देखभाल उनके लिए सबसे बड़ा धर्म है।
15 साल पहले शुरू हुई कहानीये कहानी 15 साल पहले शुरू हुई, जब अजय और उनके दोस्त मस्जिद के पास से गुजर रहे थे। उस वक्त मस्जिद के आसपास जंगल-झाड़ियां थीं। अजय बताते हैं, “हमें लगा कि अल्लाह के घर को साफ-सुथरा करना चाहिए। हमने जंगल साफ किया, फर्श बनाया, प्लास्टर किया, पुताई की। फिर सोचा कि मस्जिद रौशन रहनी चाहिए, तो सांझ-बाती शुरू की। अगरबत्ती जलाने लगे। फिर अजान की जरूरत महसूस हुई, तो लाउडस्पीकर और पेन ड्राइव से अजान शुरू कर दी।”
सारा खर्च इन्होंने अपनी जेब से उठाया। अजय कहते हैं, “शायद अल्लाह ने चाहा कि हमसे ये काम करवाए, और हमने कर दिखाया।”
200 साल पुरानी मस्जिद की कहानीमाड़ी गांव में अब कोई मुस्लिम परिवार नहीं रहता। भारत-पाकिस्तान विभाजन के दौरान हुए दंगों के बाद मुस्लिम परिवार धीरे-धीरे गांव छोड़ गए। गांव वालों के मुताबिक, ये मस्जिद करीब 200 साल पुरानी है। इसके पास एक मजार भी है, जहां लोग शुभ काम शुरू करने से पहले प्रणाम करने आते हैं।
मस्जिद के बगल में रहने वाली कुसुम देवी कहती हैं, “गांव में कोई मुस्लिम नहीं है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मस्जिद को यूं ही छोड़ दिया जाए। हम सब मिलकर इसकी देखभाल करते हैं। कोई भी शुभ काम हो, पहले यहां प्रणाम करते हैं, फिर देवी स्थान पर पूजा करने जाते हैं।”
खुद के खर्चे पर मस्जिद का रख-रखावअजय पासवान रोजाना 500 रुपये की मजदूरी कमाते हैं। मस्जिद के रख-रखाव का सारा खर्च वह और उनके दोस्त खुद उठाते हैं। वह कहते हैं, “हम गांव वालों से कुछ नहीं लेते। कोई मेहमान आकर 50-100 रुपये दे दे, तो बात अलग है। मेरी मां, पत्नी, बच्चे भी इस काम में मेरा साथ देते हैं, क्योंकि ये धर्म का काम है।”
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