Mumbai , 20 जुलाई . हिंदी सिनेमा के स्वर्णिम दौर में एक ऐसी शख्सियत ने अपनी धुनों से अमिट छाप छोड़ी, जिन्हें ‘मैंडोलिन का जादूगर’ कहा जाता है. एक ‘मौलिक’ संगीतकार सज्जाद हुसैन की रचनाएं आज भी संगीत प्रेमियों के दिलों में जिंदा है. उनकी 21 जुलाई को पुण्यतिथि है.
15 जून 1917 को मध्य प्रदेश के सीतामऊ में जन्मे सज्जाद हुसैन का संगीत से रिश्ता बचपन से ही था. उनके पिता, शौकिया सितार वादक थे. उन्होंने सज्जाद को इस वाद्य यंत्र की बारीकियां सिखाईं. सज्जाद का मन वाद्य यंत्रों में ऐसा रमा कि किशोरावस्था तक उन्होंने सितार, वीणा, वायलिन, बांसुरी, पियानो और मैंडोलिन जैसे 20 से अधिक वाद्य यंत्रों में महारत हासिल कर ली. खासकर मैंडोलिन को उन्होंने सितार की तरह बजाया, जिसे हिंदुस्तानी शास्त्रीय रागों के साथ मिश्रित कर अनोखी धुनें रचीं. उनकी यह कला हिंदी सिनेमा में दुर्लभ थी.
सज्जाद का करियर साल 1944 में फिल्म ‘दोस्त’ से बतौर स्वतंत्र संगीतकार शुरू हुआ. हालांकि, असली पहचान 1950 की फिल्म ‘खेल’ से मिली, जहां लता मंगेशकर की आवाज में ‘भूल जा ऐ दिल मोहब्बत का फसाना’ ने दशक के सर्वश्रेष्ठ गीतों में जगह बनाई. 1951 की ‘हलचल’ का गीत ‘आज मेरे नसीब ने मुझको रुला-रुला दिया’ उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना में एक माना जाता है. सज्जाद खुद इसे अपनी सबसे प्रिय रचना मानते थे. 1952 में आई ‘संगदिल’ उनकी व्यावसायिक रूप से सबसे सफल फिल्म रही. इसका गीत ‘वो तो चले गए ऐ दिल याद से उनकी प्यार कर’ दादरा ताल में खमाज और कलावती रागों का मिश्रण था, जो आज भी संगीत प्रेमियों की जुबान पर है. उनकी आखिरी चर्चित फिल्म ‘रुस्तम-सोहराब’ (1963) थी, जिसने उनके संगीत की गहराई को फिर साबित किया.
सज्जाद की खासियत थी उनकी मौलिकता. वे किसी से प्रेरित नहीं थे, बल्कि अपनी संगीतमय दुनिया खुद रचते थे. तकनीकी रूप से जटिल उनकी धुनें गायकों के लिए चुनौती थीं. लता मंगेशकर ने एक बार कहा था, “सज्जाद साहब का संगीत मेरे करियर की सबसे बड़ी उपलब्धि है. ऐसा संगीत कोई और नहीं बना सका.”
सज्जाद हुसैन भारतीय फिल्म संगीत से जु़ड़ी ऐसी हस्ती थे, जिनके लिए न कोई आदर्श था न कोई प्रेरणा का स्रोत, उन्होंने खुद ही संगीत की अपनी दुनिया रची और मैंडोलिन में महारत हासिल की. वह अपने संगीत को लेकर सख्त थे और लगभग एक परफेक्शनसिस्ट. कई बार उनका यह स्वभाव फिल्म इंडस्ट्री के दस्तूर से मेल नहीं खाया तो कई दफा उनको एक अड़ियल इंसान का दर्जा भी मिला.
हालांकि यह कुछ ऐसी बातें हैं जिनको भारत की स्वर साम्राज्ञी लता मंगेशकर ने स्वीकार भी किया और इसका खंडन भी किया. सज्जाद के साथ काम चुकीं लता मानती थी कि वह एक शानदार संगीतकार थे. वह खुद अपने लिए प्रेरणा बनना चाहते थे. उनको कुछ अलग करके दिखाना था. इस बात को सज्जाद ने भी बड़ी सहजता से स्वीकार किया और अपनी तपस्या को लेकर उनमें स्वाभिमान भी नजर आया. यह स्वाभिमान उनके जीवन में हमेशा रहा.
अक्सर चीजें उनके परफेक्शन के हिसाब से नहीं होती तो वह नाराज हो जाते थे. लता ने एक बार बताया था कि अगर कोई गायक अच्छा नहीं गा पाता था या वादक साज के साथ मेल नहीं मिल पाता था तो सज्जाद कठोरता से केवल इतना कह देते थे, “अरे भाई कम से कम साज के साथ तो मेल बैठाओ.” लता बताती हैं कि बात अक्सर इतनी ही होती थी, लेकिन लोगों ने उनके स्वभाव को कई बार ठीक से नहीं समझा. इसके बावजूद अक्खड़ संगीतकार का टैग सज्जाद के साथ लगा रहा. वह केवल चुनिंदा फिल्मों में ही संगीत दे पाए.
दो दशकों के करियर में उनकी रचनाएं गिनती में कम थीं, लेकिन क्लास में अधिक. सज्जाद ने कहा था कि चाहे उनकी रचना सफल रही हो या दर्शकों का उसे प्यार मिला हो, उन्होंने अपनी हर काम को अलग अंदाज में किया. उनका काम अनूठा था और सज्जाद को इस पर हमेशा गर्व रहा. सज्जाद का स्वाभिमान उनकी पहचान थी. वे अपनी शर्तों पर काम करते थे. वह अपने आप में पूरी टीम थे. उनके संगीत में भावनाओं की गहराई और तकनीकी जटिलताएं थीं, जो उन्हें हिंदी सिनेमा के सबसे अनूठे संगीतकारों में शुमार करती है.
21 जुलाई 1995 को सज्जाद हुसैन इस दुनिया से चले गए, लेकिन उनकी धुनें टाइमलेस और जीवंत हैं.
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एमटी/एएस
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