भारत के गृह मंत्री अमित शाह के हालिया बयान का मतलब तो यही है कि भारत में माओवादियों का सबसे सुरक्षित इलाक़ा और उनका मुख्यालय कहे जाने वाले बस्तर के अबूझमाड़ इलाके़ में अब माओवादी नहीं बचे हैं.
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने 16 अक्तूबर को एक्स पर किए एक पोस्ट में कहा, ''एक समय आतंक का गढ़ रहे छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ और उत्तर बस्तर को आज नक्सली हिंसा से पूरी तरह मुक्त घोषित कर दिया गया है. अब छिटपुट नक्सली केवल दक्षिण बस्तर में बचे हुए हैं, जिन्हें हमारे सुरक्षा बल शीघ्र ही समाप्त कर देंगे.''
उत्तर बस्तर के इलाके़ में कांकेर, नारायणपुर और बीजापुर ज़िले शामिल हैं और इसी इलाके़ का एक बड़ा हिस्सा है- अबूझमाड़.
अमित शाह ने एक्स पर किएपोस्ट में लिखा, ''जनवरी 2024 में छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार बनने के बाद से 2100 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है, 1785 को गिरफ्तार किया गया है और 477 को न्यूट्रलाइज़ किया गया.''
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अमित शाह ने लिखा ''यह 31 मार्च 2026 से पहले नक्सलवाद को जड़ से ख़त्म करने के हमारे दृढ़ संकल्प का प्रतिबिंब है.''
एक अन्य पोस्ट में उन्होंने लिखा, ''आज छत्तीसगढ़ में 170 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है. कल राज्य में 27 ने अपने हथियार डाल दिए थे. महाराष्ट्र में, कल 61 नक्सली मुख्यधारा में लौट आए. कुल मिलाकर, पिछले दो दिनों में 258 जुझारू वामपंथी उग्रवादियों ने हिंसा का मार्ग त्याग दिया है. मैं उनके इस निर्णय की सराहना करता हूँ कि उन्होंने हिंसा का त्याग करते हुए भारत के संविधान में अपना विश्वास प्रकट किया है.''
बस्तर के वरिष्ठ पत्रकार सुरेश महापात्र कहते हैं कि सरकार को बहुत संवेदनशीलता से काम करने की ज़रूरत है.
उनका कहना है, "अबूझमाड़ का नक्सल-मुक्त होना सिर्फ़ एक सुरक्षा उपलब्धि नहीं, बल्कि उस आदिवासी भूगोल की नई सुबह भी है, जो आज तक ठीक से सरकारी नक्शों तक भी नहीं पहुंचे हैं."
वो कहते हैं, "लेकिन प्रशासनिक दखल बढ़ने और विकास योजनाओं के पहुंचने की उम्मीदों के बीच, इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि वहां नए सिरे से आदिवासियों का शोषण शुरु हो सकता है. इसलिए सरकार को बहुत संवेदनशीलता से काम करने की ज़रुरत है."
जीपीएस की रोशनी और गूगल मैप की लकीरों से जगमगाते मौजूदा दौर में भी, छत्तीसगढ़ के बस्तर इलाक़े के लगभग चार हज़ार वर्ग किलोमीटर में फैला अबूझमाड़ सैकड़ों साल से धरती पर दर्ज, पर दस्तावेज़ों में गुम, एक पहेली की तरह रहा है.
अधिकांश इलाकों में यहाँ न किसी ज़मीन की नाप तय है, न किसी चारागाह का पता, न सड़कों की कोई निश्चित रेखा.
पुराने दस्तावेज़ों से पता चलता है कि कभी अकबर के ज़माने में यहां राजस्व के दस्तावेज़ इकट्ठा करने की कोशिश हुई थी, पर जंगलों की गहराई ने हर नापने वाले क़दम को निगल लिया और अबूझमाड़ वैसा ही रह गया अबूझ, यानी जिसे समझा न जा सके.
1909 में अंग्रेज़ों ने इस इलाक़े में लगान की गणना करने की कोशिश की, लेकिन वे भी असफल रहे.
आज़ादी के बाद बड़ी मुश्किल से गांवों के आँकड़े इकट्ठे हुए, लेकिन अबूझमाड़ के 237 गांव बरसों अपने ही समय में कैद रहे, नक्शों से बाहर, फ़ाइलों से बाहर, यहाँ तक कि सरकार की अधिकांश योजनाओं से भी बाहर.
इस इलाक़े के आदिवासी अपनी ज़मीन के मालिक तो थे, पर उनके पास एक भी कागज़ नहीं था.
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सत्तर के दशक में पहली बार नक्सलियों ने इस इलाक़े में आंध्र प्रदेश से प्रवेश किया, लेकिन वे भी वापस लौट गए.
पुलिस के दस्तावेज़ों की मानें, तो अस्सी के दशक में नक्सलियों ने दूसरी कोशिश की. नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप की एक टुकड़ी इस इलाक़े में आई और तेंदू पत्ता की मज़दूरी के सवाल पर लोगों को गोलबंद करना शुरू किया.
देश-दुनिया से अनजान, इस इलाक़े के आदिवासी किस हाल में थे, इसे लेकर अंतहीन कहानियाँ और दावे मौजूद हैं.
नक्सली दस्तावेज़ों में भी दावा है कि एक किलो नमक के बदले आदिवासियों से एक किलो काजू या चिरौंजी ले लेने जैसे तरह-तरह के अविश्वसनीय किस्सों के बीच, इस इलाक़े में अपनी पैठ बनाने में नक्सलियों को बहुत मुश्किल नहीं हुई.
तब की राजधानी भोपाल से बस्तर के आख़िरी छोर की दूरी लगभग हज़ार किलोमीटर थी और इस इलाक़े में किसी सरकारी अफ़सर की नियुक्ति की तुलना लोग 'काला पानी की सज़ा' से करते थे.
1980 के दशक की शुरुआत में ही आदिवासियों की सामाजिक-सांस्कृतिक निजता का हवाला देकर अबूझमाड़ में बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
इसी दौरान अबूझमाड़ के साथ-साथ बस्तर और अविभाजित मध्य प्रदेश के दूसरे इलाक़ों में नक्सलियों का विस्तार होता चला गया. अबूझमाड़ की भौगोलिक परिस्थिति नक्सलियों के सैन्य प्रशिक्षण के लिए एकदम अनुकूल थी.
यही कारण है कि धीरे-धीरे यह इलाक़ा दंडकारण्य में नक्सलियों का सबसे अभेद्य गढ़ बनता चला गया. आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में जब नक्सलियों पर दबाव बढ़ा तो नक्सलियों की सेंट्रल कमेटी हो या पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी सबकी पनाहगाह अबूझमाड़ ही बना.
लेकिन इस दौरान भी अबूझमाड़ उस भूले हुए भूगोल की कथा बना रहा, जहाँ लोग भारत के नक्शे से बाहर जी रहे थे.
छत्तीसगढ़ के अलग राज्य बनने के नौ साल बाद, 2009 में इस इलाक़े में प्रवेश पर लगाए गए प्रतिबंध को हटाया गया, लेकिन तब तक नक्सलवाद की जड़ें जंगल की जड़ों की तरह फैल चुकी थीं.
वरिष्ठ पत्रकार प्रफुल्ल ठाकुर कहते हैं, ''अगर दंतेवाड़ा और दक्षिण बस्तर नक्सली हिंसा का केंद्र था, तो उत्तर बस्तर, विशेषकर अबूझमाड़ नक्सलियों का आधार इलाक़ा था, जहाँ नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही थी. जनताना सरकार ज़मीनों के पट्टे बाँटती थी और जन अदालत लगाकर फ़ैसले भी करती थी.''
15वीं शताब्दी के बाद, 2017 में पहली बार छत्तीसगढ़ की सरकार ने राजस्व सर्वेक्षण का काम शुरू किया, लेकिन कई सालों तक नक्सलियों के ख़ौफ़ के कारण वह भी संभव नहीं हो सका.
सरकारी रणनीति, बदलते हालात2018 में बस्तर में जब सुरक्षाबलों के कैंप स्थापित होने शुरू हुए, तो मानवाधिकार संगठनों की ओर से दावा किया गया कि ये कैंप मूल रूप से आयरन ओर (लौह अयस्क) और दूसरे खनिजों के उत्खनन के लिहाज़ से स्थापित किए जा रहे हैं.
भिलाई स्टील प्लांट जैसे भारत सरकार के उपक्रमों ने यह स्वीकार भी किया कि खनन में सुविधा के लिए उन्होंने इन कैंपों की स्थापना का सारा ख़र्च वहन किया है.
लेकिन सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती नक्सलियों के गढ़ यानी अबूझमाड़ में घुसना था.
2023 में छत्तीसगढ़ में सरकार बदली और विष्णुदेव साय की सरकार ने एक तरफ़ जहाँ माओवादियों को शांति वार्ता के लिए आमंत्रित किया, वहीं दूसरी ओर सुरक्षाबलों के ऑपरेशन की रफ़्तार तेज़ कर दी.
सुरक्षाबलों, विशेषकर जिला रिज़र्व गार्ड में, स्थानीय आदिवासियों विशेषकर आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों की भर्ती से नक्सलियों के ख़िलाफ़ चलाए जाने वाले ऑपरेशन को पहली बार भौगोलिक समझ भी मिली और रणनीतिक समझ भी.
इन अभियानों के समानांतर विकास कार्यों में भी तेज़ी लाई गई. सड़क निर्माण, संचार नेटवर्क, बिजली कनेक्शन और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया गया.
प्रशासन ने पहली बार अबूझमाड़ के कई गाँवों का राजस्व सर्वेक्षण शुरू किया, जिससे नागरिक सेवाएँ और सरकारी योजनाएँ वहाँ पहुँच सकें.

बस्तर के इलाक़ों में सुरक्षाबलों के 64 नए कैंप बनाए गए और लगभग हर दिन नक्सलियों के ख़िलाफ़ ऑपरेशन चलाया गया.
इन ऑपरेशन्स की तीव्रता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि नक्सलियों के ख़िलाफ़ चलाए गए पिछले 25 सालों के सारे रिकार्ड ध्वस्त हो गए और सीपीआई माओवादी के महासचिव बसवराजू समेत पोलित ब्यूरो और सेंट्रल कमेटी के कई नेता इन ऑपरेशन में मारे गए.
राज्य के मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय कहते हैं, "हमारी सरकार के पिछले 22 महीनों के कार्यकाल में 477 नक्सली मारे गए हैं, 2110 ने आत्मसमर्पण किया है और 1785 गिरफ्तार किए गए हैं. हमने छत्तीसगढ़ को नक्सलमुक्त करने का संकल्प लिया है और हम उसी रास्ते पर हैं."
उत्तर बस्तर में माओवादियों के ख़िलाफ़ सरकार की रणनीति और सफलता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि नारायणपुर जिले की बड़सेटी पंचायत को राज्य की पहली नक्सल-मुक्त पंचायत घोषित किया गया. यह सिर्फ़ प्रतीक नहीं था, बल्कि इस बात का संकेत था कि लोग अब नक्सली हिंसा से उब चुके हैं.
हालांकि दक्षिण बस्तर के दंतेवाड़ा, सुकमा के अलावा उत्तर बस्तर के बीजापुर में नक्सली अभी भी चुनौती बने हुए हैं.
पुलिस के एक अधिकारी कहते हैं, "अबूझमाड़ जैसे घने जंगलों में कुछ छोटे नक्सली समूह अब भी हो सकते हैं. लेकिन उनसे निपटना बहुत मुश्किल नहीं होगा. हां, अबूझमाड़ केवल एक भूगोल नहीं, बल्कि एक चेतावनी भी है कि सत्ता और समाज की दूरी जब बढ़ती है, तो विचारधाराएँ बंदूक का रूप ले लेती हैं."
वो कहते हैं, "इसलिए सरकार को उन मुद्दों पर और गंभीरता से काम करने की ज़रुरत है, जिसके कारण इस इलाक़े में नक्सलियों को जगह मिली थी."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
- बस्तर के पत्रकार जो नक्सलियों और सुरक्षाबलों के बीच खोजते हैं कहानियां-ग्राउंड रिपोर्ट
- छत्तीसगढ़ में माओवाद को ख़त्म करने की सरकार की कोशिशें क्या कामयाब हो रही हैं?
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